SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए सरिणयासो १३७ चउक्क० सिया विहत्ति सिया अविह०; सेसाणं णियमा विहत्तिओ। सम्मामि० जो विह० सो सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सेसाणं पन्जा णियमा विह० । सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ सो अणंताणु० चउक्क० सिया विह. सिया अविह०; सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ। अणंताणु कोध० जो विहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामि० सिया विह. सिया अविह०, सेसाणं पय० णियमा विहत्तिओ। एवं तिणि कसाय० । अपञ्चक्खाण-कोध० जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं सिया विह० सिया अविह०, सेसाणं पय० णियमा विह० । एवमेकारसकसाय-णवणोकसायाणं । आहार-आहारमिस्स० मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ, सो अणंताणु चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है, किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके समान अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी अपेक्षा जिस प्रकार सन्निकर्षके विकल्प कहे है, उसीप्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्षके विकल्पोंका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-वैक्रियिककाययोगमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों प्रकारके जीव होते हैं। किन्तु कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, क्योंकि जो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर देव या नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अपर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय होकर क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है। अत: वैक्रियिककाययोगवाले जीव २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतिक स्थान वाले होते हैं, अतः इसी अपेक्षासे ऊपरके सभी विकल्प घटित कर लेना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें जो मिथ्यात्वकी विभक्तिघाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy