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________________ १०२ जयधवलासहिदै कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ . ६१२०. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु बाबीसण्हं पयडीणं विहत्ती केव० का होदि? जह खुद्दाभवग्गहणं । अणंताणु०चउक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क०दोण्हं पि अणंतकालो, असंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० एगसमओ उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि। पंचिदियतिरिक्ख-पंचिति०पज-पंचिंतिजोणिणीसुबाबी सहं पयडीणं विहत्ती केव० का० होदि ? जह० खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं । सम्मत्त०सम्मामि०-अणंताणु०चउक्कस्स जह० एगसमओ, उक्क० सव्वासिं पयड़ीणं तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्व (ब्भ ) हियाणि । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । काल एक समय बन जाता है । परन्तु सातवें नरकमें ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्त काल हुए बिना मरता नहीं अत: वहां अनन्तानुबन्धीका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त कहा है। १२०.तिथंचगतिका कथन करते समय तियचोंमें बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका काल कितना है ? जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है । और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय है। तथा पूर्वोक्त बाईस और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन दोनोंका उत्कृष्ट अनन्त काल है। जो अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्योपम है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियों में बाईस प्रकृतियोंका काल कितना है ? जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। तथा सम्यक्प्रकृति, सम्यग्गिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय है और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम है। जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच आदिके मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका काल बतलाया है उसी प्रकार मनुष्यत्रिक अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, और मनुष्यनीके भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका काल समझना चाहिये। विशेषार्थ-तिर्यंचोंके पांच भेद हैं। उनमेंसे लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंचोंको छोड़कर शेष चार प्रकारके तिर्यंचोंकी अपेक्षा यहां पर अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्वकाल कहा है। सामान्यसे तिर्यच गतिमें रहनेका जघन्यकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागके जितने समय हों उतने पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, इसलिये जिन प्रकृतियोंका तियंचगतिमें कभी भी अभाव नहीं होता ऐसी बाईस प्रकृतियोंका तियंचगति सामान्यकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल क्रमसे खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारका उत्कृष्ट सत्त्वकाल भी असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण हो जाता है, क्योंकि इतने काल तक जीव तियंचगतिमें मिथ्यात्वके साथ रह सकता है और मिथ्यात्वमें अनन्तानुबन्धीका अभाव नहीं होता। परन्तु अनन्तानुबन्धीके जपन्य सत्त्वकाल और सम्यक्त्वप्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वप्रकृतिके जघन्य और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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