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________________ गा० २२ ] वड्ढविहत्ती भागाभागाणुगमो एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । ३५०८. भागाभागाणुगमेण दुविहो पिसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अवदिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतभागा । सेसपदा अनंतिमभागो । एवं तिरिक्ख- कायजोगि - ओरालि०- णवुंस० - चत्तारिक ० - असंजद ० - अचक्खु० तिण्णिलेस्सा-भवसिद्धि० - आहारि० । ४५६ S ५०६ आदेसेण णेरइएस अवट्ठि० सव्वजीवा० के० ? असंखेखा भागा । सेसप० असंखे० भागो । एवं सव्वपुढवी - पंचि०तिरिक्वतिय - मणुस - देव-भवणादि जाव णवगेवज्ज० - पंचिं- (पंचिं ० ) पञ्ज० -तस-तसपञ्ज०- पंचमण० - पंचवचि० - वेउव्विय० - इस्थिपुरिस ० चक्खु ० तेउ०- पम्म० सुक्क० सण्णि त्ति वत्तव्वं । पंचिं० तिरि० अपज० अवद्वि० सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा। संखेज्जभागहाणि० असंखे० भागो । एवं मणुस अपज्जत्ताणं | अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति पंचिदियतिरिक्खअपज्जतभंगा । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचि ० पज्ज० (अपज्ज) - चत्तारि काय - तसअपज्ज०- - वेउब्वियमिस्स ० इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ । ५०८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओधनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमें से ओघकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सर्व जीवोंके कितने वें भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । तथा शेष संख्यातभागवृद्धि आदि स्थानवाले जीव अनन्तत्रें भाग हैं । इसीप्रकार तिर्यंच, काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य और आहारक जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये । ५०६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव सर्व नारकी जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । शेष पदवाले असंख्यात एक भाग हैं । इसीप्रकार सभी पृथिवियोंके नारकी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिमती ये तीन प्रकारके तिथंच, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुकुलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंका भागाभाग कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव सभी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तथा 'संख्यातभाग हानिवाले जीव असंख्यात एक भाग हैं । इसीप्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों का भागाभाग कहुना चाहिये । अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंका भागाभाग पंचेन्द्रिय तिर्थच लब्ध्यपर्याप्तकों के समान है । इसीप्रकार सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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