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________________ ४५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ आहारमिस्स-अवष्टिदस्स वे भंगा २। एवमकसाई०-सुहुम०-जहारवाद०-उबसम०सासण-सम्मामिच्छादिहीणमवष्टिदस्स एक-बहुजीवे अवलंविय वेभंगा वत्तव्वा । ५०७. अवगद० सव्वपदा भयाणजा । भंगा छव्वीस २६ । आभिणि-सुद०ओहि०-मणपज० अवहा०णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिजा । भंगा णव है। एवं संजद०-सामाइय-छेदो०-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइयदिठीणं वत्तव्वं । अभव० अवहिद० णियमा अत्थि। इसप्रकार आठ भंग होते हैं। इसीप्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके उक्त दो पदोंकी अपेक्षा आठ भंग कहना चाहिये । आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थितपदके दो भंग होते हैं। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथारूयातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंमें अवस्थितपदके एक जीव और बहुत जीवोंका आश्रय लेकर दो भंग कहना चाहिये । विशेषार्थ-उपर्युक्त लब्ध्यपर्याप्तक आदि सान्तर मार्गणाएँ हैं। इनमें कभी जीव नहीं भी पाये जाते हैं । कभी एक और कभी अनेक जीव पाये जाते हैं। अतः लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी इन दो मार्गणाओंमें अवस्थित और संख्यात भागहानि ये दो पद पाये जानेके कारण एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक और द्विसंयोगी कुल आठ भंग हो जाते हैं। तथा शेष सान्तर मार्गणाओंमें एक अवस्थान पद ही पाया जाता है इसलिए वहां एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक भंग दो ही होते हैं। ५०७. अपगतवेदियोंमें सभी पद भजनीय हैं। यहां कुल भंग छब्बीस होते हैं। विशेषार्थ-अपगतवेदियोंके संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थित ये तीन पद पाये जाते हैं जो कि भजनीय हैं। तीन पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी कुल भंग छब्बीस होते हैं। अतः अपगतवेदियोंके छब्बीस भंग कहे । तीन पदोंके छब्बीस भंग कैसे होते हैं इसकी प्रक्रिया ऊपर लिख आये हैं। ___मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें अवस्थित पद वाले जीव नियमसे हैं। शेष संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि इन दो पदवाले जीव भजनीय हैं। यहां भंग नौ होते हैं। इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणाओंमें तीन पद बतलाये हैं उनमें से अवस्थित पद ध्रुव और शेष दो भजनीय हैं। दो भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा . एक संयोगी और द्विसंयोगी कुल आठ भंग होते हैं। तथा उनमें एक ध्रुव भंगके मिला देने पर कुल भंग नौ होते हैं। उपर्युक्त मार्गणास्थानों में यही नौ भंग कहे हैं। अभव्योंमें अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव नियमसे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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