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________________ १०४ जयधवासहिदे कसा पाहुडे पडीणमंतोमुहुत्तं । एवं मणुसअप ० वतव्वं । ६१२२. देवाणं णारगभंगो । भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति बाबीसं पयडीणं जणुकसहिदी वत्तव्वा । छण्णं पयडीणं जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी वत्तच्वा । अणुद्दिसादि जाव सव्ववसिद्धि त्ति मिच्छत्त- सम्मामिच्छत्त - बारसकसाय - णवणोक० जह० जहण्णहिदी वत्तव्वा । सम्मत- अणंताणु० चउक्क० जह० एगसमओ अंतोमुहुतं, उक्क० सगट्टिदी | [ पयडिविहती २ जघन्य काल एक समय है । तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके भी कहना चाहिये । विशेषार्थ - लब्ध्यपर्याप्तक जीव कदलीघात से खुदाभवग्रहण तक जीवित रह कर मर जाते हैं, अतः उनकी जघन्य आयु खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट आयु अन्तर्मुहूर्त है और इसीलिये सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यमिध्यात्वके जघन्य सत्त्वकालको छोड़कर शेष सभी प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे खुद्दाभवग्रहण और अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उद्वेलनाके कालमें एक समय शेष रहने पर अविवक्षित गतिका जीव विवक्षित पर्याय में जब उत्पन्न होता है तब उसके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यगमिध्यात्वका जघन्य काल एक समय बन जाता है । Jain Education International $१२२. देवगतिमें सामान्य देवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका सत्त्वकाल सामान्य नारकियोंके समान कहना चाहिये। विशेषकी अपेक्षा भवनवासियोंसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक प्रत्येक स्थानमें बाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका काल उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । तथा नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक प्रत्येक स्थानमें मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्यकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये । और सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल सर्वत्र अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । I विशेषार्थ - नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धीके जघन्य कालको छोड़कर शेष कथन में कोई विशेषता नहीं है । नरकगतिका कथन करते समय जिसप्रकार उसका खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां की विशेष स्थितिको ध्यान में रखकर उसका खुलासा कर लेना चाहिये । परन्तु अनुदिशसे आगेके देवोंके एक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, इसलिये इनके सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धीके जघन्य कालमें विशेषता आ जाती है। जिसके सम्यक्प्रकृतिकी क्षपणामें एक समय शेष है ऐसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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