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________________ गा० २२ ] . . पयडिहाणविहत्तीए अंतरं २६॥ सगहिदी देसूणा । छब्बीसविह० ओघमंगो। सेसाणं णत्थि अंतरं । $३२३.जोगाणुवादेण पंचमण-पंचवचि० अठ्ठावीसवि० जह• एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । सेसाणं हाणाणं णत्थि अंतरं । एवं कायजोगि-ओरालिय०-वेउब्बिय०चत्तारिकसाय० वत्तव्वं ।। ६३२४. वेदाणुवादेण इस्थि-पुरिस-णqसयवेदेसु अट्ठावीस-सत्तावीस-चउवीसविह. जह० एगसमओ, पलिदो० असंखे० भागो, अंतोमु० । उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं, सागरोवमसदपुधत्तं, उवदृपोग्गलपरियटं । छव्वीसविह० जह. पलिदो० असंखे० भागो। उक्क. पणवण्णपालदोवमाणि, वे छावष्टिसागरोवमाणि, तेचीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सेसाणं हाणाणं णत्थि अंतरं । असंजद० णबुंस० भंगो। चक्खु० तसभंगो। ६३२५.लेस्साणुवादेणकिण्ण-णील-काउ०अष्टावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसवि० प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। शेष स्थानोंका अन्तर नहीं होता है। ३३२३. योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। शेष सत्ताईस आदि प्रकृतिकस्थानोंका अन्तर नहीं होता है । इसीप्रकार काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी और चारों कषायवाले जीवोंमें अट्ठाईस आदि स्थानोंका अन्तर कहना चाहिये। . ६३२४. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताइसप्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपम असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है। तथा स्त्रीवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका उत्कृष्ट अन्तर सौ पल्य पृथक्त्व है। पुरुषवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। तथा नपुंसकवेदी जीवोंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिकस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर उपापुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। तथा उक्त तीनों वेदवाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है। और उत्कृष्ट अन्तर श्रीवदी जीवोंमें साधिक पचपन पल्य, पुरुषवेदी जीवों में साधिक एक सौ बत्तीस सागर और नपुंसकवेदी जीवोंमें साधिक तेतीस सागर है। संभव शेष स्थानोंका अन्तर ही नहीं है। असंयतोंमें नपुंसकवेदियोंके समान जानना चाहिये । चतुदर्शनी जीवोंमें त्रस जीवोंके समान जानना चाहिये। ६३२५. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर एक समय, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग और चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्य अन्तर अन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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