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________________ गा०२२] भुजगारविहत्तीए कालाणुगमो भागो। ४६३. उवसमसम्मादिहिस्स अणंताणुबंधिचउकं विसंजोएंतस्स अप्पदरं होदि ति तत्थ अप्पदरकालपरूवणा कायव्वा ति ? ण, उवसमसम्मादिडिम्मि अणंताणुपंधिविसंजोयणाए अभावादो । तदभावो क्रुदो णवदे ? उवसमसम्मादिहिम्मि अवाहिदपदं घेव परूवेमाण-उच्चारणाइरियषयणादो णध्वदे। उवसमसम्मादिहिम्मि अणंताणुवंघिचउकविसंजोयण भणंत-आइरियवयणेण विरुज्झमाणमेदं वयणमप्पमाणभावं किंण दुकदि ? सचमेदं जदि तं सुत्त होदि। सुत्तेण वक्खाणं बाहिदि ण पक्खाणेण वक्खाणं । एत्थ पुण दो वि उवएसा परवेयव्वा दोण्हमेक्कदरस्स सुत्ताणुसारित्तावगमाभावादो। किमहमुवसमसम्मादिहिम्मि अणंताणुबंधिचउकविसंजोयणा णत्थि ? ६१६३. शंका-जो उपशमसम्यग्दृष्टि चार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करता है उसके अल्पतर विभक्तिस्थान पाया जाता है, इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टियों में अल्पतर विभक्तिस्थानके कालकी प्ररूपणा करनी चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुबन्धी चारकी विसयोजना नहीं पाई जाती है। शंका-उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्तानुषन्धी चारकी विसंयोजना नहीं होती है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-उपशमसन्यग्दृष्टिके एक अवस्थित पद ही होता है इसप्रकार प्रतिपादन करनेवाले उच्चारणाचार्यके वचनसे जाना जाता है कि उपशमसम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना नहीं होती। शंका-उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना होती है इसप्रकार कथन करनेवाले आचार्य बचनके साथ यह उक्त वचन विरोधको प्राप्त होता है इसलिये यह वचन अप्रमाण क्यों नहीं है ? समाधान-यदि उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्रवचन होता तो यह कहना सत्य होता, क्योंकि सूत्रके द्वारा व्याख्यान बाधित होजाता है, परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान बाधित नहीं होता। इसलिये उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है यह वचन अप्रमाण नहीं है। फिर भी यहां पर दोनों ही उपदेशोंका प्ररूपण करना चाहिये; क्योंकि दोनोंमेंसे अमुक उपदेश स्त्रानुसारी है इसप्रकारके ज्ञान करनेका कोई साधन नहीं पाया जाता है। शंका-उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना क्यों नहीं होती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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