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________________ गा० २२] वढिविहत्तीए अंतराणुगमो तस-तसपज्ज० संखेज्जभागवड्ढिहाणि० जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क. सगुक्कस्सहिदी देसूणा। अवट्ठा० संखेज्जगुणहाणीणमोघभंगो। पंचमण-पंचवचि०-ओरालि०वेउध्विय० अवट्ठा० ओघभंगो। सेसाणं णस्थि अंतरं ।। ५०१. कायजोगि० संखे०भागवड्ढी० संखे० गुणहाणी० णत्थि अंतरं । संखे० मागहाणि० जहण्णुक० पालिदो० असंखे० भागो। अवहा० ओघभंगो। आहारआहार-मिस्स० अव० णत्थि अंतरं । एवमकसाय०-सुहुम०-जहाक्खाद०-अब्भव०. उवसम-सम्मामि०-सासण। ६५०२. वेदाणुवादेण इत्थि० संखेजभागवड्ढीहाणि० जह० अंतोमु० उक्क० उसका तात्पर्य यह है कि इनमें २८ से २७ और २७ से २६ विभक्तिस्थानकी प्राप्ति होना सम्भव है जिनके प्राप्त होनेमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल लगता है। अब यदि किसी एक जीवने २८ से २७ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह पहली संख्यात भागहानि हुई। पुनः उसी जीवने पल्यके असंख्यातवें भाग कालके जानेपर २७ से २६ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया तो यह दूसरी संख्यात भागहानि हुई। इस प्रकार पहली संख्यात भागहानिसे दूसरी संख्यातभागहानिके होनेमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हुआ। तथा संख्यातभागहानिका जो एक समय काल है वही यहां अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, बस और सपर्याप्त जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थान और संख्यात गुणहानिका अन्तरकाल बोषके समान है। पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी और वैक्रियिनकाययोगी जीवोंके अवस्थानका अन्तरकाल ओधके समान है। शेष स्थानोंका अन्तर काल नहीं पाया जाता है। ५०१. काययोगी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका अन्तर. काल नहीं पाया जाता है । संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अवस्थानका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। ५०२. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थितका अन्तरकाल ओघके समान है। पुरुषवेदवाले जीवोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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