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________________ ४५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६५००. देव० संखेज्जभागवड्ढी-हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीससागरोवमाणि देसूणाणि । अवठ्ठा० ओघभंगो। भवणादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति संखेज्जभागवड्ढीहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा । अवहा० ओघभंगो । एइंदिय० बादर० सुहुम०-पंचकाय० बादर०सुहुम० संखेज्जभागहाणि० जहएणुक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। कुदो ? सम्मत्तुव्वेल्लमाए संखेजभागहाणं करिय पुणो पलिदो० असंखे० भागकालेण सम्मामि० उव्वेलिदण संखेजभागहाणि कुणंतस्स तदुवलंभादो। अवहा० जहण्णुक्क० एगसमओ। पंचिंदिय-पचिं० पज्ज० ६५००.देवोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओषके समान है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है। विशेषार्थ-सामान्य देवोमें और नौग्रेवेयक तकके उनके अवान्तर भेदोंमें अपने अपने कालकी मुख्यतासे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्व प्रक्रियानुसार घटित कर लेना चाहिये । यहां सामान्य देवोंमें जो इकतीस सागरकी अपेक्षा अन्तर काल कहा है उसका कारण यह है कि यहीं तकके देवोंके गुणस्थानोंमें अदल बदल होती है जिसकी अन्तरकालोंको घटित करते समय आवश्यकता पड़ती है। तथा शेष अन्तरकालोंका कथन सुगम है। एकेन्द्रिय और उनके बादर और सूक्ष्म तथा पांचों स्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शंका-उक्त जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पक्ष्योपमके असंख्यातवें भाग क्यों है ? समाधान-क्योंकि सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलनाके द्वारा संख्यातभागहानिको करनेके अनन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कालके पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके द्वारा संख्यातभागहानिको करनेवाले उक्त जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। तथा उक्त एकेन्द्रिय आदि जीवोंके अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय होता है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियादिके उक्त मार्गणाओंमें संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है इसका खुलासा ऊपर किया ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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