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________________ गा० २२ ) फ्यडिहाणहितीए कालो २५७ जहण्येण एगसमओ, उकस्सेण तेतीसं सामरोवमाणि । एवं छब्बीस. वत्तव्यं । सचावीस० ओषभंगो । चउवीसविह० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उन तेतीसं सागसेवमाणि देखणाणि । वावीसविह० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । एकवीसविह० जह० चउरासीदिवस्ससहस्साणि अंतोमुत्तगाणि । उक्क. सागशेवमं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणं । एवं पढमाए पुढबीए । णवरि, सगाहिदी बत्तव्वा । विदियादि जाव सत्तमि ति अहावीस-छब्बीस विह० केव० ? बह० एगसमओ, उक्क. सगसगहिदी । सत्तावीस० ओघभंगो । चउपीसविह० केव० ? जह• अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगाहिंदी देसूणा । है। चौबीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन तेतीस सागर है। वाईस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य एक समय और . उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इक्कीस विभक्ति स्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम एक सागर है। सामान्य नारकियोंके विभक्तिस्थानोंके कालका जिसप्रकार कथन किया है उसीप्रकार पहले मरकमें समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां उस्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंके अट्ठाईस और छब्बीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सत्ताईस विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल औषके समान है। चौबीस विभक्तिस्थानका कितना काल है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उपदेशोन अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। विशेषार्थ-जिसके सम्यगमिथ्यात्वकी उद्वेलनामें एक समय शेष रह गया है ऐसा जीव अदि मरकर नरक में उत्पन्न होता है तो उसके नरक अवस्था में २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसीप्रकार प्रत्येक नरकमें २८ विभक्तिस्थानका एक समय काल जानना चाहिये। तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना किया हुआ जो सम्यग्दृष्टि नारकी मिथ्यात्वमें जाकर और एक समय तक अनन्तानुबन्धीकी सत्ताके साथ रहकर तथा दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है उसके भी २८ . विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय बन जाता है। पर यह व्यवस्था प्रथमादि छह नरकों में ही लागू होती है सातवेंमें नहीं, क्योंकि सातवेंमें ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्त हुए बिना नहीं मरता है ऐसा नियम है। २८ विभक्तिस्थानवाला कोई एक जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और वहां वह वेदक सम्यक्त्वके कालके भीतर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरण होने में अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर मिथ्यादृष्टि हो गया उसके २८ किभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर पाया जाता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ऐसे जीवके अनन्ता ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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