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________________ गा० २२] भुजगारविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो पुरिस-चक्खु-तेउ०-पम्म-सुक्क०-सण्णि ति। पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव अवराइद ति-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-चत्तारिकाय- तसअपज० -वेउब्वियमिस्स० -विहंग०-आमिणि-सुद०-ओहि०-संजदा-संजद ओहिदंस०-सम्माइही-वेदय०-खइयसम्मादिहि ति एदेसु सव्वेसु वि सन्चस्थोवा अप्पदरविहतिया, अवविद०. असंखे गुणा । सवढे सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया, अवद्विदविहत्तिया संखेजगुणा । एवमवेद०-मणपजव०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार० वत्तव्वं । ६४७१. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा भुज०, अप्पदर० असंखेजगुणा, अवष्टि० असंखेजगुणा । मणुसपञ्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा भुज०, अप्पदर० संखेजगुणा, अवाहिक संखेजगुणा। ६४७२. एइंदिएसु सव्वत्थोवा अप्पदर०, अवट्टि० अणंतगुणा । एवं सव्ववणप्फदि वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, त्रसलब्ध्यपर्याप्तक, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सबसे थोड़े अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अपगतवेदी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें अल्पतर आदि विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अल्पबहुत्व कहना चाहिये । ४७१. मनुष्योंमें भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव असं रूयातगुणे हैं । मनुष्य पर्याप्त और स्त्रीवेदी मनुष्यों में भुजगार विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ४७२. एकेन्द्रियोंमें अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार सभी वनस्पतिकायिक, सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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