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________________ چیف जेयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। आहार० अठ्ठावीसं पय० विह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद०-अकसाय-सुहुमसांपराय-जहाक्खादाणं, णवरि चउवीसपय० वत्तव्वं । आहारमिस्स० अठावीसपय० विहत्ति० के० ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । उवसमसम्मा० अट्ठावीसपय० विह० के० ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। एवं सम्मामि० । सासण० अठ्ठावीसपय० विह० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। कम्मइय०-अणाहार० सम्मत्त-सम्मामि० विह० जह० एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखेजदिभागो। एवं णाणाजीवेहि कालो समत्तो। उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आहारककाययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका काल जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्थानमें चौबीस प्रकृतियां कहना चाहिये । आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह तो स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त सान्तर मार्गणाओंको छोड़कर तथा अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसयत जीवोंको छोड़कर शेष सव मार्गणाओंमें भी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सर्वदा हैं यह भी स्पष्ट है । पर सान्तर मार्गणाओं और उक्त स्थानोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका सर्वदा पाया जाना संभव नहीं है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व आदि आठ मार्गणाएं स्वयं सान्तर हैं, इन मार्गणाओंवाले जीव सर्वदा नहीं होते, तथा अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसंयत जीव यद्यपि पाये तो सर्वदा जाते हैं पर इनका सर्वदा पाया जाना सयोगियों की अपेक्षासे जानना चाहिये और सयोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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