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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुअाणुगमो १८३ सत्तावीससंतकम्मियमेत्तो । सम्मामिच्छत्त-अविहत्तिया असंखेजगुणा । को गुणगारो ? सम्मामि० विहत्तिएहिं किंचूणणेरइयविक्वंभसूचीए ओवट्टिदाए जं भागलद्धं तत्तियमेत्तसेढीओ गुणगारो। कुदो ? छव्वीसविहत्तियाणं पाहण्णण गहणादो । सम्मत्त अविह० विसे । के० मत्तो ? वावीसविहत्तियणसत्तावीससंतकाम्मयमेत्तो । अणताणु० चउक्क० विह० विसेसा० । के० मत्तो ? एक्कवीसविहतिएहि यूणअहावीसविहत्तियमत्तो। मिच्छत्त० विह० विसेसा । केत्ति? चउवीसविहत्तियमेत्तो। बारसक०-णवणोकसायविह विसेसा०। के० मेत्तेण ? वावीस-इगवीसविहत्तियमेत्तेण। एवं पढमपुढवीपंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरिक्वपज्जत्त-देव-सोहम्मीसाण जाव सहस्सार-वेउव्विय. वेउव्वियमिस्स०-तेउ०-पम्म० वत्तव्यं । पर जो प्रमाण शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकी जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण क्या है ? सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंके प्रमाणसे नारकियोंकी कुछ कम विष्कम्भसूचीके भाजित कर देनेपर जो भाग लब्ध आवे उतनी जगछ्रेणियां प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण है । इसका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकियोंमें छब्बीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका प्रधानरूपसे ग्रहण किया है। सम्यग्मिध्यात्वकी अविभक्तिवाले नारकियोंसे सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? सत्ताईस प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणमेंसे बाईसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है । सम्यक्प्रकृतिकी अविभक्तिवाले नारकियोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंके प्रमाणमेंसे इक्कीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका प्रमाण घटा देनेपर जो शेष रहे उतना विशेषका प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकियोंसे मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? चौबीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका जितना प्रमाण है उतना है। मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकियोंसे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाले नारकी जीव विशेष अधिक हैं। विशेषका प्रमाण कितना है ? बाईस और इक्कीसप्रकृतिक विभक्तिस्थानवाले नारकियोंका जितना प्रमाण है उतना है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, सामान्यदेव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्नकाययोगी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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