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________________ ७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। णिरय० तिरिक्खगइ-आदिसेसाणं मग्गणाणं मोहविहत्तियाणं कालो सव्वद्धा ।। एवं कालो समत्तो। ६६१. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण विहत्ति० अविहत्ति० णत्थि अंतरं, णिरंतरं । एव मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त-तसतसपज्ज०-तिण्णिमण-तिण्णिवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-संजद-सुक्क०-भवसिद्धिय-सम्मादि०-खइय०-आहारि-अणाहारए त्ति वत्तव्वं ।। ६६२. आदेसेण णिरयगदीए णेरइएसु विहत्ति० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय० उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा नरकगति और तिर्यंचगति आदि शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। विशेषार्थ-मतिज्ञान आदि मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले दोनों प्रकारके जीव होते हैं। उनमेंसे मोहनीय विभक्तिवाले जीव तो सर्वदा पाये जाते हैं पर मोहनीय अविभक्तिवाले जीव अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक पाये जाते हैं, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा भी बारहवें गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुंहूर्त ही है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके कालके समान है। नानाजीवोंकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टियोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतः सासादनकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका उक्त काल कहा है। ऊपर जिन मार्गणाओंका कथन कर आये उनसे अतिरिक्त नरकगति आदि प्रायः सभी मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले ही जीव होते हैं। तथा वे मार्गणाएं सर्वदा होती हैं अतः उनमें रहनेवाले मोहनीयविभक्तिवाले जीवका काल भी सर्वदा कहा है। इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ । ११.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि वे सर्वदा पाये जाते हैं । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यणी ये तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी और ये ही तीन वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, संयत, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, आहारक और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये । अर्थात् इन मार्गणाओंमें मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये अन्तरकाल नहीं है। ६६२.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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