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________________ २७ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ तेणब्भहियं, सागरोवमसदपुधत्तं, वेसागरोवमसदसहस्साणि पुष्यकोडिपुथत्तेणब्भहियाणि, बेसागरोवमसहस्सं । अविहत्तियाणं मणुसभंगो। ५५. पंचमण-पंचवचि०विहत्ती अविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगैसमओ उक्कम्सेण अंतोमुहत्तं । सागर, त्रसजीवके पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और उसपर्याप्त जीबके पूरे दो हजार सागर है। तथा मोहनीय कर्मसे रहित पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मोहनीय कर्मसे रहित मनुष्योंके कालके समान जानना चाहिये । विशेषार्थ-कोई एक जीव यदि पंचेन्द्रियों में निरन्तर परिभ्रमण करे तो वह पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक हजार सागर कालतक ही पंचेन्द्रिय रहता है, अनन्तर उसकी पंचेन्द्रिय पर्याय छूट जाती है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवका भी अपने अपने उक्त उत्कृष्ट कालतक उस उस पर्यायमें निरन्तर अधिकसे अधिक परिभ्रमणका प्रमाण समझना चाहिये । इनका जघन्य काल स्पष्ट ही है। इन पंचेन्द्रियादिकोंमें मोहनीय कर्मका अभाव मनुष्यके ही होता है, अतः मनुष्यगतिमें जो मोहनीयके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल ऊपर कह आये हैं वही पंचेन्द्रियादि चारोंकी अपेक्षासे भी समझना चाहिये। ६५५. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके मोहनीय विभक्ति और अविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-कोई एक मोह विभक्ति वाला काययोगी जीव काययोगका काल पूरा हो जाने पर विवक्षित मनोयोगको प्राप्त हुआ। वहां वह एक समय तक रहा अनन्तर मर कर काययोगी हो गया। अथवा कोई एक मोहविभक्तिवाला काययोगी जीव काययोगका काल पूरा हो जाने पर विवक्षित मनोयोगको प्राप्त हुआ जो कि एक समय तक रहा । अनन्तर व्याघात हो जानेसे दूसरे समयमें पुनः उसके काययोग हो गया। इस प्रकार विवक्षित मनोयोगके साथ मोह विभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार वचन योगकी अपेक्षासे मोह विभक्तिके एक समय प्रमाण कालका कथन करना चाहिये। मोहअविभक्ति क्षीणमोहगुणस्थानसे होती है। और क्षीणमोह गुणस्थानमें पृथक्त्ववितर्कवीचार तथा एकत्व वितर्कअवीचार ये दोनों ध्यान सम्भव हैं। वीरसेन स्वामी कर्म अनुयोगद्वारमें ध्यानका कथन करते हुए लिखते हैं कि 'क्षीणकषायके काल में सर्वत्र एकत्ववितक अवीचार ध्यान ही होता है यह बात नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर वहां परिवर्तन द्वारा योगका एक समय प्रमाण कालका कथन नहीं बन सकता है। अतः (१ -ण खीण कसायद्धाए सव्वत्थ एयत्तविदक्कावीचारझाणमेव जोगपरावत्तीए एगसमयपलवणण्णहाणुववत्तीदो। बलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो। ५० क० ५० पृ० ८३९ उ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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