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________________ गा० २२ ] मूलप डिविहत्तीए कालो ३३ ५४. पंचिदिय-पंचिदियपज त तस-तसवत्ताणं मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोह हुत्तं उकस्सेण सागरोवमसहस्सं पुव्वको डिपुंधअन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही बतलाया है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तों का जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त इन जीवोंका जघन्य काल क्रमश: खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है । काय मार्गणाकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, अष्कायिक और वायुकायिक जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहाहै । बादर पृथिवी, बादर जल, बादर अभि, बादर वायु और बादर बनत्पति प्रत्येक शरीर इनका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। यहां कर्मस्थिति से सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण काल लेना चाहिये । बादर पृथिवी पर्याप्त; बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष, बादर जलकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्ष, बादर अभिकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति तीन दिन, बादर वायुकायिक पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अमि कायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त और अपर्याप्तोंका काल जिस प्रकार ऊपर कह आये हैं उस प्रकार समझना चाहिये । इसप्रकार इन उपर्युक्त जीवोंका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही यहां मोहनीयका जघन्य और उत्कृष्ट काल है । ५४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपयाप्त तथा त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके मोहनीय विभक्ति का कितना काल है ? पंचेन्द्रिय और त्रसके जघन्यकाल खुद्दा भवग्रहण प्रमाण तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त और त्रसपर्याप्त जीवके जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल पंचे-न्द्रिय जीव के पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके सौ पृथक्त्व ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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