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________________ २४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ( पयडिविहत्ती २ * एकारसण्हं बारसण्हं तेरसण्हं विहत्ती केवचिरं कालावो होदि ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। २७४. एक्कारसविहत्तीए ताव उच्चदे । तं जहा-अण्णदरवेदोदएण खवगसेटिं चडिय इत्थिणqसयवेदेसु खविदेसु एक्कारसविहत्ती होदि । ताव सा होदि जाव छण्णोकसाया परसरूवेण ण गच्छंति । एसो एक्कारसविहत्तीए जहण्णकालो । उक्कस्सओ वि छण्णोकसायखवणकालो चेव अण्णत्थ एक्कारसविहत्तीए अणुवलंभादो । णवरि, छण्णोकसायखवणजहण्णकालादो उक्कस्सकालण विसेसाहिएण संखेजगुणेण वा होदव्वं, अण्णहा एक्कारसविहत्तिकालस्स जहण्णुक्कस्सविसेसणाणुववत्तीदो। अहवा जहण्णकालो उक्कस्सकालो च सरिसो छण्णोकसायखवणद्धामेत्तत्तादो । ण च छण्णोकसायरखवणद्धा अणवाहिदो सव्वेसि पि जीवाणं सरिसेत्ति भणंताणमाइरियाणमुवदेसालंबणादो । ण च पांच विभक्तिस्थान वाला रहता है । यही सबब है कि पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समयकम दो आवलिप्रमाण बतलाया है। * ग्यारह, बारह और तेरह प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। - १२७४. पहले ग्यारह प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं। वह इसप्रकार है-तीनों वेदोमेंसे किसी एक वेदके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़कर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके क्षपित हो जानेपर ग्यारह प्रकृतिक स्थान होता है। यह स्थान तबतक होता है जबतक छह नोकषाय परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त नहीं होती हैं । ग्यारह प्रकृतिक स्थानका यह जघन्य काल है। इस स्थानका उत्कृष्ट काल भी छह नोकषायोंके क्षपणाका जितना काल है उतना ही होता है, क्योंकि छह नोकपायोंके क्षपणोन्मुख जीवको छोड़कर अन्यत्र ग्यारह प्रकृतिक स्थान नहीं पाया जाता है। इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी क्षपणाके जघन्य कालसे छह नोकषायोंकी क्षपणाका उत्कृष्ट काल विशेषाधिक होना चाहिये या संख्यातगुणा होना चाहिये । यदि ऐसा न माना जाय तो ग्यारह प्रकृतिक स्थानके कालके जो जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण दिये हैं वे नहीं बन सकते हैं। अथवा, उक्त स्थानका जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल समान है; क्योंकि दोनों काल छह नोकषायोंकी क्षपणामें जितना समय लगता है तत्प्रमाण हैं। यदि कहा जाय कि छह नोकषायोंकी क्षपणाका काल अनवस्थित है अर्थात् भिन्न भिन्न जीवोंके भिन्न भिन्न होता है सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि सभी जीवोंके छह नोकषायोंकी क्षपणाका काल सदृश है, इसप्रकारका कथन करनेवालोंको आचार्योंके उपदेशका आलम्बन है, अर्थात् आचायाँका इसप्रकारका उपदेश पाया जाता है। यदि कहा जाय कि ऐसी अवस्थामें ऊपर चूर्णिसूत्रमें कालके जो जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण दे आये हैं वे निष्फल हो जायँगे सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों विशेषण विवक्षाभेदसे दिये गये हैं, इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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