________________
"
अयषवलासहित कषायप्रामृत
सतरह अनुयोगोंके द्वारा किया गया है, जिनमेंसे काल अनुयोगका सामान्यसे कथन यतिवृषभ आचार्यने स्वयं किया है और शेष अनुयोगद्वारोंका कथन उच्चारणा वृचिके आधारसे किया गया है।
पदनिक्षेप
पहले मोहनीयके २८, २७ आदि विभक्तिस्थान बतलाये हैं। उनमेंसे अमुक स्थानसे अमुक स्थान की प्राप्ति होने पर वह हानिरूप है या वृद्धिरूप है, इत्यादि बातोंका विचार पद निक्षेप नामके विभागमें किया है । जैसे एक जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला है । उसने सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके सचाईस प्रकृतियोंकी सचाको प्राप्त किया तो यह जघन्य हानि कही जायेगी। तथा एक जीव इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता वाला है । उसने क्षपकश्रेणी पर चढ़ कर आठ कषायोंका क्षय करके तेरह प्रकृतिक सत्त्व स्थानको प्राप्त किया तो यह उत्कृष्ट हानि कही जायेगी। इसी तरह मोहनीयकी सत्ता वाले किसी जीवने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त किया तो यह जघन्य वृद्धि कहलायेगी । और चौवीस विभक्ति स्थानवाले किसी जीवने मिथ्यात्वमें जाकर अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सचा प्राप्त की तो यह उत्कृष्ट वृद्धि कहलायेगी। इत्यादि बातोंका विचार इस अधिकारमें किया गया है।
इस अधिकारके प्रारम्भमें केवल एक चूर्णिसूत्र लिखकर आचार्य यतिवृषभने प्रकृति विभक्तिको समाप्त कर दिया है। हां, उच्चारणाचार्यने समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इस तीन अनुयोगद्वारोंसे पदनिक्षेपका वर्णन किया है । उसीको लेकर स्वामी वीरसेनने कथन किया है।
वृद्धिविभक्ति मोहनीयके उक्त सत्त्व स्थानोंमेंसे एक स्थानसे दूसरे स्थानको प्राप्त होते समय जो हानि, वृद्धि या अवस्थान होता है वह उसके संख्यातवे भाग है या संख्यातगुणा है इत्यादि विचार वृद्धिविभक्तिमें किया है। इस अधिकारका कथन तेरह अनुयोगद्वारोंसे किया गया है। वृद्धिविभक्तिके पूर्ण होनेके साथही प्रकृति विभक्ति समास होजाती है
अनुयोगोंकी उपयोगिता तस्वार्थ सूत्रके पहले अध्यायमें वस्तुतस्वको जाननेके उपाय बतलाते हुए कहा है कि यों तो प्रमाण और मयसे वस्तुतत्वका ज्ञान होता है, किन्तु उसमें सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुख भी उपयोगी हैं, इनके द्वारा वस्तुका पूरा सानोपांग ज्ञान हो जाता है । जैसे, यदि हमें मोटरें खरीदना है तो उनके बारेमें हम निम्न बातें जानना चाहेंगे-आजकल बाजारमें मोटर हैं या नहीं? कितनी हैं? कहां कहां है? हमेशा कहांसे मिल सकती हैं ? कब तक मिल सकती हैं ? यदि बिक चुकें तो फिर कितने दिन बाद मिल सकेंगी? किस किस रूप रंगकी हैं ? किस किस्मकी ज्यादा हैं और किस किस्मकी कम ? इन बातोंसे हमें मोटरोंके विषयमें जैसे पूरी जानकारी हो जाती है वैसे ही जैनसिद्धान्तमें जीव आदि तत्वोंकी जानकारी भी उक्त अनुयोगद्वारोंसे कराई गई है । चूकि प्रकृत कषायप्राभृत ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय मोहनीय कर्मका सत्त्व है अतः इसमें उसका कथन विविध अनुयोगोंके द्वारा किया गया है । उनसे उसका सङ्गोपांग परिज्ञान हो जाता है और कोई भी बात छूट नहीं जाती।
किन्तु आजके समयमें यह प्रश्न होता है कि एक मोहनीय कर्मके इतने सांगोपाङ्ग ज्ञानकी क्या भावश्यकता है? मनुष्य जीवनमें उसका उपयोग क्या है ?
जैन सिद्धान्तका नाम जानने वाले भी इतना तो जानते ही हैं कि जैन धर्म आत्मधर्म है । वह प्रत्येक मात्माके भभ्युस्थानका मार्ग बतलाता है। और आत्माके अभ्युत्थानका सबसे बड़ा बाधक मोहनीय कर्म है। भतः उत कर्मकी कौन कौन प्रकृति कब कहांपर केसी हालतमें रहती है, मादि बातोंको जानना आवश्यक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org