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________________ प्रस्तावना किन्तु यह स्पष्ट है कि आत्माके अभ्युत्थानके लिये इतना सांगोपांग ज्ञान होना ही आवश्यक नहीं है परन्तु चिचका एकाग्र होना आवश्यक है । और चितकी एकाग्रताके लिये करणानुयोगके ग्रन्थोंकी स्वाध्याय जितनी उपयोगी है उतनी अन्यग्रन्थोंकी नहीं, क्योंकि करणानुयोगका चिन्तन करते करते यदि मन अभ्यस्त हो जाता है तो उसमें कितना ही समय लगाने पर भी मन उचटता नही है और दुनियावी वासनाओमें जानेसे रुक जाता है । इसीसे विपाक विचय और संस्थान विचयको धर्मध्यानका अंग बतलाया है। अतः शानकी विशुद्धि, मनकी एकाग्रता और सद्विचारोंमें काल क्षेप करनेके लिये ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें मन लगाना चाहिये। हर्षका बात है कि उत्तर भारतके सहारनपुर खतौली आदि नगरोंमें आज भी ऐसे स्वाध्याय प्रेमी सदगृहस्थ हैं, जो ऐसे ग्रन्थोंकी स्वाध्यायमें अपना काल क्षेप करते हैं। उनमें सहारनपुरके बा० नेमिचन्द्र जी वकील व बा० रतनचन्द जी मुख्तार, मुजफ्फर नगरके बा०मित्रसेन जी.खतौलीके लाला नानकचन्दजी तथा सलावाके लाला हुकुमचन्द्रजीका नाम उल्लेखनीय है। बा०मित्रसेनजीने जयधवलाके प्रथम भागकी स्वाध्याय करनेके बाद कुछ शकायें जयधवला कार्यालयसे पूछी थीं जिनका समाधान उनके पास भेज दिया गया था। ला० नानकचन्दजीने तो स्वाध्याय करते समय मूलसे अनुवादका मिलान तो किया ही, साथ ही साथ खतौलीके श्री जिन मन्दिरजीकी जयधवलाकी लिखित प्रतिसे भी मूलका मिलान करके हमारे पास पाठान्तरोंकी एक लम्बी तालिका भेजी । किन्तु उसमें कोई ऐसा पाठान्तर नहीं मिला जो शुद्ध हो और अर्थकी दृष्टिसे महत्व रखता हो । अधिकतर पाठान्तर लेखकोंके प्रमादके ही सूचक हैं, इसीसे उन्हें यहां नहीं दिया गया है। फिर भी उन्होंने मूलमें दो स्थानों पर छूटे हुए पाठोंकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है उन्हें हम संधन्यवाद यहां देते हैं १-पृष्ठ ९८, पं० २ में ‘णायर-खेट' आदिसे पहले 'गाम' पाठ और होना चाहिये। २–पृष्ठ ११०, पं० ४ में 'कित्तणं वा' से पहले 'सरूवाणुसरणं' पाठ जोड़ लेना चाहिये। . ३-पृ० ३९२, पं० ३ में ‘णाणजीवेहि' के स्थान में 'णाणाजीवेहि होना चाहिये । शून्योंका खुलासा जयधवलाके प्रथम भागके अन्तमें अनुयोगद्वारोके वर्णनमें मूलमें शून्य रखे हुए हैं । लाला नानक चन्द्रजीने इन शून्योंका अभिप्राय पूछा था। इस दूसरे भागमें तो चूँकि अनुयोगद्वारोंका ही वर्णन है, अतः मूलमें शून्योंकी भरमार है। इन शून्योंके रखनेका अभिप्राय यह है बार बार उसी शब्दको पूरा न लिखकर उसके आगे शून्य रख दिया गया है। इससे लिखनेमें लाघव हो जाता है और उसके संकेतसे पाठक छोड़ा गया पाठ भी हृदयंगम कर लेता है। जैसे 'कम्मइय०' से कार्मणकाय योगी लिया गया है, सो पूरा 'कम्मइयकायजोगि' न लिखकर ‘कम्मइय०' लिख दिया गया है। ऐसेही सर्वत्र समझ लेना चाहिये। अलमिति विस्तरेण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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