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________________ प्रस्तावना १३ विभक्ति और नोसर्वविभक्तिमें तथा उत्कृष्ट विभक्ति और अनुत्कृष्ट विभक्तिमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता, तथापि यथार्थमें दोनोंमें अन्तर है । सर्वविभक्ति में तो पृथक् पृथक् सब प्रकृतियोंका कथन किया जाता है और उत्कृष्टविभक्तिमें समस्त प्रकृतियों का सामूहिक रूपसे कथन किया जाता है । इसी तरह नोसर्वविभक्ति और अनुत्कृष्ट विभक्तिमें भी जानना चाहिये । मोहनी की सबसे कम प्रकृतियोंका सत्त्व जघन्य विभक्ति है और उससे अधिकका सत्व अजघन्यविभक्ति है । एक प्रकृतिके अस्तित्वमें अन्य प्रकृतियोंके अस्तित्व और नास्तित्वका विचार सन्निकर्ष अनुयोग द्वारमें किया जाता है । जैसे, जो जीव मिथ्यात्वकी सत्तावाला है उसके सम्यक्त्व, सम्यक मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चार कषायोंकी सत्ता होती भी है और नहीं भी होती । किन्तु शेष बारह कषाय और नव नोकषायोंकी सत्ता अवश्य होती है । जिसके सम्यक्त्व प्रकृतिकी सत्ता है उसके मिथ्यात्व सम्यक मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी ४ की सत्ता होती भी है और नहीं भी होती, किन्तु मोहनीयकी शेष प्रकृतियोंकी सत्ता अवश्य होती है। इसी तरह शेष प्रकृतियोंके बारेमें विचार इस अनुयोगद्वार में किया गया है । शेष सतरह अनुयोगद्वारोंमें जिन बातोंका कथन किया है उसका निर्देश पहले किया ही है । अन्तर केवल इतना ही है कि मूलप्रकृति विभक्ति में मूल प्रकृति मोहनीय कर्मको लेकर विचार किया गया है और उत्तरप्रकृति विभक्तिमें मोहनीय कर्मकीं २८ उत्तर प्रकृतियोंको लेकर विचार किया गया है । यह उल्लेखनीय है कि आचार्य यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोंमें उत्तरप्रकृतिविभक्तिमें अनुयोगद्वारोंका निर्देश तो किया है किन्तु उनका कथन नहीं किया । श्री वीरसेन स्वामीने उसके सब अनुयोग द्वारोंका निरूपण उच्चारणावृत्तिके आधारसे ही किया है । . प्रकृतिस्थानविभक्तिका वर्णन करते हुए आचार्य यतिवृषभने सबसे प्रथम मोहनीयके स्थानोंको गिनाया है । फिर प्रत्येक स्थानकी प्रकृतियोंको बतलाया है । मोहनीयके सत्त्वस्थान १५ होते हैं- २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ प्रकृतिक । पहले सत्त्वस्थानमें मोहनीयकी सब प्रकृतियां होती हैं। दूसरेमें सम्यक्त्व प्रकृति नहीं होती । तीसरेमें सम्यक्त्व और सम्यक मिथ्यात्व प्रकृतियां नहीं होतीं। चौथेमें अनन्तानुवन्धी ४ कषाय नहीं होतीं । पांचवेमें चौत्रीसमेंसे मिथ्यात्व भी चला जाता है । छठेमें तेईसमेंसे सम्यक मिथ्यात्व भी चला जाता । सातवे में बाईसमेंसे सम्यक्त्व प्रकृति भी चली जाती है। आठवें में इक्कीसमेंसे आठ कषायें चली जातीं हैं। नौवेमें १३ मेंसे नपुंसक वेद भी चला जाता है । दसवें में १२ मेंसे स्त्रीवेद भी चला जाता है । ग्यारहवें में छ नोकषाय भी चली जाती हैं । बारहवें में पुरुष वेद भी चला जाता है और केवल ४ संज्वलन कषाय रह जाती हैं | तेरहवें में संज्वलन क्रोध चला जाता है। चौदहवेंमें संज्वलन मान चला जाता | और पन्द्रहवेंमें संज्वलन मायाके चले जानेसे केवल एक संज्वलन लोभ शेष रह जाता है । इन पन्द्रह स्थानोंका वर्णन गुणस्थान और मार्गणास्थानों में सतरह अनुयोगोंके द्वारा किया गया है । इनमेंसे आचार्य यतिवृषभने स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय, और, अल्पबहुत्वका कथन ओघसे किया है । शेष कथन उच्चारणाचार्य वृत्ति अनुसार ही किया गया है । • भुजकारविभक्ति मोहनी के उक्त स्वस्थानोंका निरूपण करने के लिये तीन विभाग और भी किये गये हैं। वे हैंभुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि । भुजकार विभक्तिमें बतलाया गया है कि उक्त सत्त्वस्थान सर्वथा स्थायी नहीं हैं, अधिक प्रकृतियोंके सत्वसे कम प्रकृतियों का सत्त्व हो सकता है और कम प्रकृतियोंके सत्त्वसे अधिक प्रकृतियोंका भी सस्व हो सकता है तथा ज्योंका त्यों भी रह सकता है । इस भुजकार विभक्तिका निरूपण भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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