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________________ २४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ हण्णंतोमुहुत्तसंसारे सेसे अट्ठकसाए खविय तेरसविहत्तिभावमुक्गयस्स अंतोमुहुत्तम्भहियअट्ठवरसेहियूण वेपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो । * वावीसाए तेवीसाए विहत्तिओ केवचिरं कालादो ? जहण्णुकस्सेणंतोमुहुत्तं। ६२८१. वावीसविहत्तियस्स ताव उच्चदे । तं जहा, तेवीसविहत्तीएण सम्मामिच्छत्ते खविदे वावीसविहत्तीए आदी होदि । पुणो जाव सम्मत्तअक्खीणचरिमसमओ ताव वावीसविहत्तिओ। एसो वावीसविहत्तियस्स जहण्णकालो। उक्कस्सो वि एत्तिओ चेव, एगसमयम्मि वट्टमाणजीवाणमणियट्टिपरिणामे पडुच्च भेदाभावादो । ण च अणियट्टीअद्धाणं विसरिसत्तमत्थि एगसमयम्मि वट्टमाणजीवपरिणामाणं भेदप्पसंगादो। ६२८२. संपहि तेवीसविहत्तीए उच्चदे । तं जहा, चउवीससंतकम्मिएण मिच्छते खविदे तेवीसविहत्तीए आदी होदि । पुणो जाव सम्मामिच्छत्तसंतकम्मं सव्वं सम्मत्तम्मि ण संछुहदि ताव तेवीसविहत्तीए जहण्णकालो । उक्कस्सविवक्खाए वि तेवीसविहउत्पन्न हुआ। पुनः आयुके अन्त में मर कर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ वहाँ संसारमें रहनेका सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष रह जानेपर आठ कषायोंका क्षय करके तेरह प्रकृतिक स्थानको प्राप्त करता है। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक स्थानका उत्कृष्टकाल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटिसे अधिक तेंतीस सागर होता है। * बाईस और तेईस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। ६२८१. उनमेंसे पहले बाईस प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं। वह इस प्रकार हैतेईस प्रकृतिकी सत्तावाले किसी जीवके द्वारा सम्यगमिथ्यात्वका नाश कर देनेपर बाईस प्रकृतिक स्थानका प्रारम्भ होता है। अनन्तर जब तक सम्यक्प्रकृतिके क्षीण होनेका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता तब तक वह जीव बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी रहता है । बाईस प्रकृतिक स्थानका यह जघन्यकाल है। इसका उत्कृष्टकाल भी इतना ही होता है, क्योंकि एक कालमें विद्यमान अनेक जीवोंमें अनिवृत्तिरूप परिणामोंकी अपेक्षा भेद नहीं पाया जाता। यदि कहा जाय कि नाना जीवोंकी अपेक्षा होनेवाले अनिवृत्तिकरणसंबन्धी कालोंमें विसदृशता पाई जाती है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर जो जीव अनिवृत्तिकरणमें समान समयवर्ती हैं उनके परिणामोंमें भेदका प्रसंग प्राप्त होता है। ६२८२. अब तेईस प्रकृतिक स्थानका काल कहते हैं वह इस प्रकार है-चौबीस प्रकृति योंकी सत्तावाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वके क्षपित कर देनेपर तेईस प्रकृतिक स्थानका प्रारंभ होता है। अनन्तर जब तक सत्तामें स्थित सम्यमिथ्यात्व कर्म सम्यक्प्रकृतिमें संक्रमित नहीं हो जाता तब तक तेईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है और यही इस स्थानका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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