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________________ २२० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २. देवो वा सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी च सामिओ होदि त्ति जाणावणफलो। शंका-चूर्णिसूत्र में जो 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है उसका क्या फल है ? - समाधान-नारकी, तियेच, मनुष्य या देव इनमेंसे किसीभी गतिका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है इस बातके ज्ञान करानेके लिये चूर्णिसूत्रमें 'अन्यतर' पदका ग्रहण किया है । विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना वेदकसम्यग्दृष्टि करता है यह तो सर्वसम्मत मान्यता है । पर उपशमसम्यग्दृष्टिके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है इसमें दो मत हैं। कुछ आचार्योंका मत है कि उपशमसम्यक्त्वका काल थोड़ा है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका काल अधिक है अतः उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं करता है । पर कुछ आचार्योंका मत है कि उपशमसम्यक्त्वके कालमें भी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है। यह दूसरा मत्त प्रवाह रूपसे चला आता है, अतः मुख्य है। इससे यह तो निश्चित हो जाता है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही अनन्तानुबन्धीकी विसं. योजना करता है। पर ऐसा जीव यदि मिश्र प्रकृतिके उदयसे मिश्रगुणस्थानमें चला जाता है तो वहां भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अभाव बन जाता है अत: चौबीस विभक्तिस्थानका स्वामी सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है। ऐसा जीव सासादन और मिथ्यात्वमें जा सकता है। पर वहां पहले समयसे ही अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगता है और चारित्रमोहनीयकी अन्य प्रकृतियोंका अनन्तानुबन्धिरूपसे संक्रमण भी, अतः वहां भी चौबीस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है। यहां वीरसेन स्वामीने बिसंयोजनाका 'अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्कन्धोंका परप्रकृतिरूपसे परिणमन करना विसंयोजना कहलाती है' यह लक्षण किया है । यद्यपि और भी ऐसी बहुतसी कर्मप्रकृतियां हैं जिनका परोदयरूपसे क्षय होता है । अत: विसंयोजनाका लक्षण परोदयसे होने वाली अन्य प्रकृतियोंकी क्षपणामें चला जाता है इसलिये अतिव्याप्ति दोष आता है। पर इसपर वीरसेन स्वामीका कहना है कि जिस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेपर उसकी पुनः संयोजना देखी जाती है उस प्रकार जिन प्रकृतियोंका अन्य प्रकृतियोंके उदयरूपसे क्षय होता है उनकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये विसंयोजनाका लक्षण अन्य प्रकृतियोंकी क्षपणामें नहीं जाता है और इसलिये अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है। तात्पर्य यह है कि विसंयोजनाके उपर्युक्त लक्षणमें 'पुनः उत्पत्तिकी शक्ति रहते हुए' इतना पद और जोड़ लेना चाहिये इससे विसंयोजनाके लक्षणका परोदयसे होनेवाली कर्मक्षपणामें जो अतिव्याप्ति दोष आता था वह नहीं आता । पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि अनन्तानुबन्धीकी षिसंयोजना हो जाने पर उसकी पुनः संयोजना होती ही है। किन्तु इसका यह अभिप्राय है कि जिसके मिथ्यात्वकी सत्ता है उसके अनन्तानुबन्धीकी पुनः संयोजना हो सकती है। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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