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________________ AAAAApna गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो २२१ * छठवीसाए विहत्तिओ को होदि १ मिच्छाइट्ठी णियमा । ६२४७. एत्थतणमिच्छादिहिणिद्देसो जेण सेसगुणहाणपडिसेहफलो तेण णियमग्गहणं ण कायव्वमिदि ? ण, मिच्छादिही छन्वीसविहत्तिओ चेवेत्ति णियमपडिसेहहं तका(तक)रणादो। __ * सत्तावीसाए विहत्तिओ को होदि ? मिच्छाइट्ठी । २४८. अहावीससंतकम्मिओ उबेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्टी सत्तावीसविहत्तिओ होदि । एत्थ वि पुग्विल्ल-णियमग्गहणमणुवावेदव्वं, अण्णहा अहावीस-छव्वीसठाणाणं मिच्छादिष्टिम्मि अभावप्पसंगादो त्ति वुत्ते ण; पुव्वावरसुत्तेहि तेसिं तत्थ अत्थित्तसिद्धीदो । * अट्ठावीसाए विहत्तिओ को होदि ? सम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्टी वा। जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है उसके अनन्तानुबन्धीकी उत्पत्ति नहीं ही होती। - * छब्बीस प्रकृतिक स्थानका खामी कौन होता है ? नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। ६२४७. शंका-चूंकि इस सूत्र में आये हुए 'मिथ्यादृष्टि' पदसे ही शेष गुणस्थानोंका निषेध होजाता है, अतः सूत्रमें 'नियम' पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला ही होता है, इसप्रकारके नियमके निषेध करनेके लिये चूर्णिसूत्र में मिथ्यारष्टि पदके साथ 'णियमा' पदका ग्रहण किया है। जिससे यह अभिप्राय निकल आता है कि मिध्यादृष्टि जीप अन्य प्रकृतिक स्थानोंका भी स्वामी होता है। पर छब्बीस प्रकृतिक स्थान केवल मिध्यादृष्टिक ही होता है अन्यके नहीं। * सत्ताईस विभक्ति स्थानका स्वामी कौन होता है ? मिथ्यावृष्टि जीव सत्ताईस विभक्ति स्थानका स्वामी होता है। ६२४८. अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला होता है। शंका-इससे पहलेके सूत्रमें कहे गये नियम पदकी अनुवृत्ति इस चूर्णिसूत्रमें भी कर लेनी चाहिये, अन्यथा मिथ्यादृष्टि में अट्ठाईस और छब्बीस प्रकृतिक विभक्ति स्थानोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। ___ समाधान-नहीं, क्योंकि इस सूत्रसे पिछले और अगले सूत्रके द्वारा मिध्यादृष्टि जीवमें उक्त दोनों थानोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। " _ *अट्ठाईस प्रकतिक विभक्ति स्थानका स्वामी कौन होता है ? सम्यग्दृष्टि, सम्यमि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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