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________________ ३२२ अचवलासहिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ $ २४६. सुगमतादो एत्थ ण वत्तम्बमत्थि । एवमोषेण बहवसहाइरियसामित - सुत्थं परूविय संपहि उच्चारणाइरिय उवसेण आदेसे सामितं भणिस्सामो । ९ २५०, पंचिंदिय-पंचिदियपञ्ज० तस तसपअ० कायजोगि चक्खुदं० - अचक्खु०भवसिद्धि ०-सण्णि आहारीणं मूलोघभंगो । 8 २५१. आदेसेण णिरयगईए जेरईएस अट्ठावीसविहती कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छाद्विस्स सम्माइट्टिस्स सम्मामिच्छाइट्ठिस्स वा । सत्तावीस-छब्बीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छा हिस्स । चउवीस-बावीस-एकवीसविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइट्ठिस्स । एवं पढमाए पुढवीए; तिरिक्ख पंचिदियतिरिक्ख- पंचिदियतिरिक्ख-देव-सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवेजे त्ति वत्तव्यं । विदियादि जाब सत्तमी ति एवं चैव । वरि, वावीस-एकवीसविहत्ती णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीभवण० वाण-जो दिसियत्ति वत्तन्वं । पञ० carefष्ट या मिध्यादृष्टि जीव अट्ठाईस प्रकृतिक विभक्ति स्थानका स्वामी होता है । ६२४९. यह सूत्र सुगम है, अतः इस विषय में अधिक कहने योग्य नहीं है । इस प्रकार ओant अपेक्षा यतिवृषभ श्राचार्य के स्वामित्व विषयक सूत्रोंका अर्थ कहकर अब उच्चारणाचार्य के उपदेशानुसार आदेशकी अपेक्षा स्वामित्वानुयोगद्वारका कथन करते हैं २५०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, प्रसपर्याप्त, काययोगी. चक्षुदर्शनी, भचक्षुदर्यानी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके मंग मूलोधके समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि एक मार्गणाओं में सब विभक्तिस्थानोंका पाया जाना संभव है अतः इनमें स्वामित्वका कथव मूलोबके समान है । २५१. आदेशकी अपेक्षा नरक गतिमें नारकियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थान किसके होता है ? मिध्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि या सम्यरमिध्यादृष्टि किसी भी नारकीके अड्डाईस विभक्ति स्थान होता है । सत्ताईस और छब्बीस विभक्ति स्थान किसके होता है ? किसी भी मिध्यादृष्टि नारकीके होता है। चौबीस, बाईस और इक्कीस विभक्ति स्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें तथा तियंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच और पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मऐशान स्वर्गसे लेकर उपरिम मैवेयक तकके देवोंके कथन करना चाहिये । नरककी दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी इसी प्रकार कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकियोंके बाईस और इक्कीस विभक्तिरूप स्थान नहीं होते हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्व योनिमती, भवनबासी, व्यन्तर और योतिषी देवोंके भी कहना चाहिये । विशेषार्थ - सामान्य से नारकियोंके २८, २७, २६, २४, २२ और २१ मे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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