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________________ गा० २१] पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिहसो २१९ विसंजोएदि वि दो पव्वदे ? उवरि भण्णमाणचुण्णिसुत्तादो। अविसंजोएंतो सम्मामिच्छाइट्ठी कथं चउनीसविहत्तिओ १ ण, चउबीससंतकम्मियसम्मादिहीसु सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णेसु तत्थ चउवीसपयडिसंतुवलंभादो। चारित्तमोहणीयं तत्थ अणंताणुपंघिसरूवेण किण्ण परिणमह ? ण, तत्थ तप्परिणमणहेदुमिच्छत्तुदयाभावादो, सासणे इव तिब्वसंकिजेसामावादो वा। ६ २४६. का विसंजोयणा ? अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेण परिणमणं विसंजोयणा । ण परोदयकम्मक्खवणाए वियहिचारो, तेसिं परसरूवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो। अण्णदरो ति णिद्देसो किंफलो? णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो शंका-सम्यग्मिध्याहृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है कि सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है। - शंका-जबकी सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है तो वह चौबीस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कैसे हो सकता है? समाधान-नहीं, क्योंकि चौबीस कर्मोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त होनेपर उनके भी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता बन जाती है। शंका-सम्यमिथ्यात्व गुणस्थानमें जीव चरित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे क्यों नहीं परिणमा लेता है ? . समाधान-नहीं, क्योंकि वहां पर चरित्रमोहनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमानेका कारणभूत मिथ्यात्वका उदय नहीं पाया जाता है, अथवा सासादन गुणस्थानमें जिसप्रकारके तीन संश्लेशरूप परिणाम पाये जाते हैं, सम्यमिध्यादृष्टि गुणस्थानमें उसप्रकारके तीव्र संशरूप परिणाम नहीं पाये जाते हैं, इसलिये सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव चारित्रमो. इनीयको अनन्तानुबन्धीरूपसे नहीं परिणमाता है। ६२४६.शंका-विसंयोजना किसे कहते हैं ? समाधान-अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्कन्धोंके परप्रकृतिरूपसे परिणमा देनेको विसयोजना कहते है। विसंयोजनाका इस प्रकार लक्षण करनेपर जिन कोंकी परप्रकृतिके उदयरूपसे क्षपणा होती है उनके साथ व्यभिचार (अतिव्याप्ति) आ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीको छोड़कर पररूपसे परिणत हुए अन्यकमोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं पाई जाती है। अतः विसंयोजनाका लक्षण अन्य कर्मोकी क्षपणामें घटित न होनेसे अतिम्याप्ति दोष नहीं जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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