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________________ ११८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पयडिविहत्ती २ समओ, उक्क० तेत्तीसंसागरोवमाणि देसूणाणि । १३२. आमिणि-सुद०-ओहि०-अणंताणु० चउक्कविहत्ति० जह• अंतोमुहुसं, उक्क० छावहिसागरो० देसूणाणि । सेसाणं पयडीणं एवं चेव । णवरि उक्क० छावष्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंसण-सम्मादिष्टि त्ति वत्तव्वं । मणपज०तेतीस सागर है। विशेषार्थ-अभव्य मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानीके सम्यगप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंका काल अनादि-अनन्त है । जिस भव्यने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका काल अनादि सान्त है। तथा इस जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाने पर इन छब्बीस प्रकृतियोंका काल सादि-सान्त हो जाता है। उनमेंसे यहां सादि-सान्तकी अपेक्षा काल कहा जा रहा है। जो सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वमें रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाता है उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा जो अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन काल शेष रहने पर उसके प्रारम्भमें सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, और छह आवली शेष रहने पर सासादनमें और वहांसे मिथ्यात्वमें जाकर परिभ्रमण करता है। पुनः अन्तिम भवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्व प्राप्त कर मोक्ष जाता है, उसके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है। किन्तु सम्यकप्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग ही होता है इससे अधिक नहीं, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा उद्वेलना होकर इनका अभाव हो जाता है, पुनः सम्यक्त्वके विना इनका सत्त्व नहीं होता। सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें विभंगज्ञानके प्राप्त होने पर विभंगज्ञानियोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय होता है। तथा जो सम्यग्दृष्टि सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर एक समय विभंगज्ञानके साथ रहता है और द्वितीय समयमें मरकर अन्य गतिको चला जाता है, उसके सभी प्रकृतियोंका विभंगज्ञानकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। विभंगज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिये छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा। और उत्कृष्ट उद्वेलना कालकी अपेक्षा शेष दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके समान पल्योपमका असंख्यातवां भाग कहा । १३२. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। तथा शेष प्रकृतियोंका काल भी इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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