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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए कालानुगमो ११७ ९ १३०. कसायाणुवादेण चत्तारिकसाय० मिच्छत्त- सम्मत्त - सम्मामि ० - अनंताणु० विह० मणभंगो | सेसाणं पयडीणं विहत्ति • जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं । १३१. णाणाणुवादेण मदि-सुद-अण्णाणि मिच्छत्त- सोलसकसाय-णवणोकसायविहत्ति तिणि भंगा। तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुहुचं, उक्क अद्धपोग्गल परियङ्कं देणं । सम्मत्त सम्मामि ० विहत्ति ० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं मिच्छादिहिस्स वत्तच्वं । विभंगणाणीसु सम्मत० - सम्मामि ० मदि - अण्णाणिभंगो | णवरि जह० एयसमओ । सेसाणं पयडीणं विह० जह० एग ० ९१३०. कषायमार्गणाके अनुवादसे चारों कषायवाले जीवोंके मिध्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीका काल मनोयोगियोंके समान है । तथा शेष इक्कीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - कषायों के परिवर्तनकी अपेक्षा मिध्यात्व आदि सात प्रकृतियोंका अघन्य काल एक समय बन जाता है, क्योंकि जिस समय इन सात प्रकृतियोंका अभाव होता है उसके पहले समय में एक कषायका काल पूरा होकर यदि अन्तिम समयमें दूसरी कषाय आ जाती है तो उस कषायके सद्भावमें ये प्रकृतियां एक ही समय दिखाई देती है । या मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छह प्रकृतियोंकी पुनः उत्पत्ति संभव है, अतः जिस समय ये छह प्रकृतियां पुनः सत्त्वको प्राप्त होती हैं वह यदि किसी कषायके उदयका अन्तिम समय हो तो उस कषायमें वे छहों प्रकृतियां एक समय दिखाई देती हैं । इस प्रकार इन सात प्रकृतियोंका चारों कषायोंमें जघन्य काल एक समय बन जाता है । पर इस प्रकार शेष इक्कीस प्रकृतियों का क्षय क्षपकश्रेणीमें होता है और क्षपकश्रेणी पर जीव जिस कषायके उदय के साथ चढ़ता है अन्त तक उसी कषायका उदय बना रहता है । इसलिए चारों कषायोंमें शेष इक्कीस प्रकृतियोंका काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रत्येक कषायके कालकी अपेक्षा जानना चाहिये, क्योंकि सामान्य रूप से किसी भी कषायका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं है । १३१. ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायके तीन भंग होते हैं । उनमें से जो सादिसान्त भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तथा सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसीप्रकार मिध्यादृष्टिके सभी प्रकृतियोंका काल कहना चाहिये । विभंग ज्ञानियोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका काल मत्यज्ञानियोंके समान है । इतनी विशेषता है इनके उक्त दोनों प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय है । तथा शेष छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य काळ एक समय है और उत्कृष्ट काळ कुछ कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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