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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ थक्त्वकाल तक रहता है, अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्कका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व कहा है । सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा कैसे घटित होता है इसका उल्लेख पहले कर आये हैं। कोई एक सम्यक्प्रकृतिकी और कोई एक सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीव पचपन पल्यकी आयु लेकर स्त्रीवेदी हुआ और वहां उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना होनेके अन्तिम समयमें वे वेदक सम्यग्दृष्टि हो गये और अन्त समयतक सम्यग्दृष्टि वने रहे। अनन्तर यहांसे सम्यग्दर्शमके साथ मर कर पुरुषवेदी हुए इस प्रकार उन स्त्रीवेदी जीवोंके उक्त दोनों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल साधिकपचपन पल्य प्राप्त होता है। जो स्त्रीवेदी जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ कर अवेदी हुआ और लौट कर पुनः एक समय तक स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मर कर पुरुषवेदी हो गया उसके शेष बाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। स्त्रीवेदीके इन्हीं बाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल जो सौ पल्यपृथक्त्व कहा है वह स्त्रीवेदीके साथ निरन्तर रहनेके कालकी अपेक्षासे कहा है। पुरुषवेदियोंके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होता है। जो पुरुषवेदी जीव छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा पुनः मिथ्यात्वमें आकर द्वितीय वार क्रमसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर उसके साथ छयासठ सागर काल तक रहा उसके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। जिसप्रकार स्त्रीवेदी जीवोंके अनन्तानुबन्धीका जपन्य काल एक समय घटित कर आये हैं उसीप्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिये । पुरुषवेदके साथ निरन्तर रहनेका काळ सौ सागर पृथक्त्व है अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्क और शेष बाईस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व कहा है। जो पुरुषवेदी उपशमश्रेणीसे उतर कर तत्काल पुनः उपशमश्रेणीपर चढ़ कर अपगतवेदी हो जाता है उसके पुरुषवेदका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इस अपेक्षासे पुरुषवेदीके शेष बाईस प्रकृ. तियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। स्त्रीवेदी जीवोंके समान नपुंसकवेदी जीवोंके सभी प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिये। जो सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला सातवें नरकमें उत्पन्न होनेसे पूर्व नपुंसकवेदी रहा और वहां उत्पन्न होने पर आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्तोंको छोड़कर सम्यग्दृष्टि रहा उसके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर प्राप्त होता है। तथा नपुंसकवेदके साथ निरन्तर रहनेका काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है अतः शेष छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कहा है। अवगतवेद आदि शेष मार्गणाओंमें चौबीस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त उस उस मार्गणास्थानके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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