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________________ जयधवलासहिंदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ २. संपहि जइवसहाइरियउवइटचुण्णिसुत्तमस्सिदूण विहत्तीए परूवणं कस्सामो * 'विहत्ति हिदि अणुभागे च ति' अणियोगद्दारे विहत्ती णिक्खिवियव्वा । णामविहत्ती ठवणविहत्ती दव्वविहत्ती खेत्तविहत्ती कालविहत्ती गणणविहत्ती संठाणविहत्ती भावविहत्ती चेदि । ३. 'विहत्ति हिदि अणुभागे च ति' एत्थ जो हविद 'इदि' सद्दो जेण पञ्चयत्थेहिंतो एदं सद्दकलावं पल्लट्टावेदि तेणेसो सरूवपर्यत्थो ( तो)। तत्थ जो विहत्तिसद्दो तस्स णिक्खेवो कीरदे अणवगयत्थपरूवणादुवारेण पयदत्थग्गहणटं। के ते तस्स विहत्तिसहस्स अत्था ? णामादिभावपञ्जवसाणा । एतेष्वर्थेष्वेकस्मिन्नर्थे विभक्तिनिक्षेप्तव्या ६२. अब यतिवृषभ आचार्य के द्वारा कहे गये चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर विभक्तिका कथन करते हैं __* 'विहत्ती हिदि-अणुभागे च' इस वाक्यमें आये हुए विभक्ति शब्दका निक्षेप करना चाहिये । यथा-नामविभक्ति, स्थापनाविभक्ति द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, गणनाविभक्ति, संस्थानविभक्ति, और भावविभक्ति । ६३. यद्यपि 'ज्ञान, अर्थ और शब्द ये समान नामवाले होते हैं' इस नियमके अनुसार 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' यह वाक्यसमुदाय तीनोंका वाचक हो सकता है फिर भी इस वाक्यमें जो 'इति' शब्द आया है उससे जाना जाता है कि प्रकृतमें यह शब्दसमुदाय प्रत्यय और अर्थका वाचक नहीं है किन्तु अपने स्वरूपमें प्रवृत्त है। तात्पर्य यह है कि यहाँ पर 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' इत्याकारक ज्ञान और इत्याकारक अर्थका ग्रहण न करके 'विहत्ति हिदि अणुभागे च' इन शब्दोंका ही ग्रहण करना चाहिये । उस विभक्ति शब्दके अनेक अर्थ हैं। उनमेंसे अनवगत अर्थके कथन द्वारा प्रकृत अर्थका ज्ञान कराने के लिये उसका निक्षेप करते हैं। शंका-उस विभक्ति शब्दके वे अनेक अर्थ कौन कौन हैं ? समाधान-ऊपर सूत्रमें जो नामसे लेकर भाव तक विभक्तिके भेद बतलाये हैं वे सब (१) “णामं ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ विभत्तीए णिक्खेवो छव्विहो।"सू० श्रु० १, अ० ५, उ०१। “णिक्खेवो विभत्तीए चउव्विहो दुविह होइ दव्वम्मि। आगमनोआगमओ नोआगमओ अ सो तिविहो ॥५५३।। जाणगसरीरभविए तव्वइरित्ते य सो भवे दुविहो । जीवाणमजीवाण य जीवविभत्ती तहिं दुविहा ॥५५४॥ सिद्धाणमसिद्धाण य अज्जीवाणं तु होइ दुविहा उ । रूवीणमरूवीण य विभासियव्वा जहा सुत्ते ॥५५५।। भावम्मि विभत्ती खलु नायव्वा छव्विहम्मि भावम्मि । अहिगारो एत्थ पुण दव्वविभत्तीए अज्झयणे ॥५५६॥"-उत्त० पाई. ३६ अ०। (२) “कदीति एत्थ जो इदि सहो तस्स 'हेतावेवं प्रकारादिव्यवच्छेदे विपर्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च 'इति'शब्दः प्रकीर्तितः।' इति वचनात् । एतेष्वर्थेषु क्वायमिति शब्दः प्रवर्तते? स्वरूपावधारणे । ततः किं सिद्धं ? कृतिरित्यस्य शब्दस्य योऽर्थः सोऽपि कृतिः। अर्थाभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इति न्यायात्तस्य ग्रहणं सिद्धम् ।"-वेदना.ध. आ०५०५५२॥ अष्टस पृ० २५१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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