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________________ गा० २२ विहत्तीए णिक्खेवो न्यस्तव्या इति यावत् । ४. संपहि अटण्हं विहत्तीणमत्थपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि * णोआगमदो दव्वविहत्ती दुविहा, कम्मविहत्ती चेव णोकम्मविहत्ती चेव । $ ५. णाम-दृवणाविहत्तीणमत्थो वुच्चदे - सरूवपयत्थो (तो) विहत्तिसद्दो कामविहत्ती। सब्भावासम्भावटवणाओ डवणविहत्ती। दव्वविहत्ती दुविहा आगम-णोआगमविहत्तिभेएण । विहत्तिपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमविहत्ती। णोआगमविहत्ती तिविहा, जाणुअसरीरविहत्ती भवियविहत्ती तव्वदिरित्तविहत्ती चेदि । विहत्तिपाहुडजाणयस्स भविय-वट्टमाण-समुज्झादसरीरं जाणुअसरीरविहत्ती। भविस्सकाले विहत्तिपाहुडजाणओ जीवो भवियविहत्ती। एदासिं विहत्तीणमत्थो जइवसहाइरिएण किण्ण परूविदो ? सुगमत्तादो। णाणावरणादिअढकम्मेसु मोहणीयं पयडिभेएण भिण्णत्तादो कम्मविहत्ती. विभक्ति शब्दके अर्थ हैं। उनमेंसे किसी एक अर्थमें विभक्ति शब्दका निक्षेप करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६४. अब आठों विभक्तियोंके अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * नोआगमकी अपेक्षा द्रव्यविभक्ति दो प्रकार की है कर्मनोआगमद्रव्यविभक्ति और नोकर्मनोआगमद्रव्यविभक्ति । ६५. अब नामविभक्ति और स्थापनाविभक्तिका अर्थ कहते हैं-जो विभक्ति शब्द अपने स्वरूपमें प्रवृत्त है और बाह्यार्थकी अपेक्षा नहीं करता उसे नाम विभक्ति कहते हैं। विभक्तिकी सद्भाव और असद्भावरूपसे स्थापना करना स्थापनाविभक्ति है। आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यविभक्ति दो प्रकारकी है। जो विभक्तिविषयक शास्त्रको जानता है, परन्तु उसमें उपयोगरहित है उसे आगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। नोआगमद्रव्यविभक्ति तीन प्रकारकी है-ज्ञायकशरीरनोआगमद्रव्यविभक्ति, भाविनोआगमद्रव्यविभक्ति और तद्ध्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति। उनमेंसे विभक्तिविषयक शास्त्रको जाननेवाले जीवके भविष्यत् वर्तमान और अतीतकालीन शरीरको ज्ञायकशरीरनोआगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। जो जीव आगामी कालमें विभक्तिविषयक शास्त्रको जानेगा उसे भाविनोआगमद्रव्यविभक्ति कहते हैं। शंका-इन विभक्तियोंका अर्थ यतिवृषभ आचार्यने क्यों नहीं कहा ? समाधान-इनका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहा। ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंमें जो मोहनीय कर्म है वह चूंकि प्रकृतिभेदकी अपेक्षा अन्य कर्मोंसे भिन्न है अतः यहां कर्मतव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यविभक्ति पदसे उसका ग्रहण किया (१) जीवाजीवुभयकारणणिरवेक्खो अप्पाणम्हि पयट्टो खेत्तसद्दो णामखेत्तं ।'-५० खे० पृ० ३ । 'तत्थ णामंतरसद्दो बज्झत्थे मोत्तूण अप्पाणम्मि पयट्टो ।'-ध० अं० पृ. १।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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