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________________ गा० २२ ] हित्ती अंतराणुगमो ४५५ संजद ० - सामाइयछेदो० । णवरि० अवद्वा० ओघभंगो । परिहार० संखेज भागहाणी० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुन्नकोडी देखणा । अवट्ठा जहण्णुक्क० एगसमओ । एवं संजदासंजद० । चक्खु ० तसपजतभंगो । ६५०४. पंचलेस्सा० संखेज भागवड्ढीहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा । अवद्वा० ओघभंगो । सुक्कलेस्सा० संखे० भागवदढीहाणी० जह० अंतोमु० उक्क० एक्कत्तीस सागरोवमाणि देखणाणि सादिरेयाणि । सेसमोघभंगो । खइय संखेजभागहाणि अंतरं जहण्णुक्क अंतोमुहुत्तं, संखेज्जगुणहाणि अवहाणं ओघभंगो । सणी ० पुरिसभंगो | णवरि संखेजगुणहाणी ओवं । आहारि० ओघभंगो | णवरि सगहिदी देखणा । अणाहारि० कम्मइयभंगो । एवमंतराणुगमो समत्तो । ०७ कि सामायिक संयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये | इतनी विशेषता इनके अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । तथा अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । चक्षुदर्शनी जीवोंके संख्यातभागवृद्धि आदिका अन्तरकाल पर्याप्त जीवोंके समान है । $ ५०४. कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले जीवोंके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । शुकुलेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर तथा संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा शेष स्थानोंका अन्तरकाल ओघके समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा संख्यातगुणहानि और अवस्थानका अन्तरकाल ओघके समान है । संज्ञी जीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल पुरुषवेदके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । आहारकजीवोंके संख्यात भागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके अवस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण होता है । अनाहारक जीवोंके अन्तरकाल कार्मणकाययोगी जीवोंके समान होता है । इसप्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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