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________________ प्रकाशककी ओरसे आज चार वर्षके पश्चात् कसायपाहुड (जयधवला) का यह दूसरा भाग (पयडि विहत्ति) प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष भी हो रहा है और संकोच भी। पहला भाग प्रकाशित होते ही दूसरा भाग प्रेसमें छपनेको दे दिया गया था। किन्तु प्रेसमें एक नये मैनेजरके आजानेसे दो वर्ष तक कुछ भी काम नहीं हो सका। उनके चले जानेके बाद जब वर्तमान मैनेजरने कार्यभार सम्हाला तब कहीं दो वर्षमें यह ग्रन्थ छप कर तैयार हो सका । ___ इस बीचमें जयधवला कार्यालयमें भी बहुत सा परिवर्तन होगया। हमारे एक सहयोगी विद्वान न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी के सहयोगसे तो हम पहले ही वंचित होचुके थे । बादको सिद्धान्त शास्त्री पं० फूलचन्द जीका सहयोग भी हमें नहीं मिल सका । फिर भी यह प्रसन्नताकी वात है कि इस भागका पर्ण अनवाद और विशेषार्थ उन्हींके लिखे हुए हैं और प्रारम्भके लगभग एक तिहाई फार्मोंका प्रमी उन्होंने देखा है। मैंने तो केवल उनके साथ इस भागका आद्योपान्त वाचन किया है। और प्रफ शोधन परिशिष्ट निर्माण तथा प्रस्तावना लेखनका कार्य किया है। हमारे पास इस ग्रन्थराजके कई भाग तैयार होकर रखे हुए हैं, किन्तु उत्तम टिकाऊ कागजके दुष्प्राप्य होने तथा प्रेसकी अत्यन्त कठिनाईके कारण हम उन्हें जल्द प्रकाशित करनेमें असमर्थ हो रहे हैं. फिर भी प्रयत्न चालू है। इस भागका संशोधन कार्य, अनुवाद वगैरह पहले भागके सम्पादकीय कक्तव्यमें बतलाये गये दंग पर ही किया गया है, टाईप भी पूर्ववत् हैं, अतः उनके सम्बन्धमें फिरसे कुछ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। जिन्हें सब बातें जानना हो उन्हें पहले भागको देखना चाहिये। ___ इस भागके पृ० २९३ आदिमें जो भंगविचयानुगमका वर्णन करते हुए करण सूत्रोंके द्वारा भग मालकी विधि बतलाई है, उसको स्पष्ट करने में लखनऊ विश्वविद्यालयके गणितके प्रधान-प्रोफेसर डा. अवधेशनारायण सिंह ने विशेष सहायता प्रदान की है, अत: मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। काशीमें गङ्गा तट पर स्थित स्व० बा० छेदीलाल जीके जिन मन्दिरके नीचेके भागमें जयभव कार्यालय स्थित है, और यह सब स्व० बांबू सा० के सुपुत्र धर्मप्रेमी बाबू गणेसदास जी के सौजन्य और धर्म प्रेमका परिचायक है। अतः मैं बावू सा० का हृदयसे आभारी हूँ। स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके अकलंक सरस्वती भवनको पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्णीने अपनी धर्ममाता स्व० चिरोंजा बाईकी स्मृतिमें एक निधि अर्पित की है जिसके व्याजसे प्रतिवर्ष विविध विषयोंके ग्रन्थोंका संकलन होता रहता है। विद्यालयके व्यवस्थापकोंके सौजन्यसे उस अन्यसंग्रहका उपयोग जयधवलाके सम्पादन कार्यमें किया जा सका है। अतः पूज्य क्षुल्लक जी तथा विद्यालयके व्यवस्थापकोंका मैं आभारी हूँ। __ सहारनपुरके स्व० लाला जम्बूप्रसाद जीके सुपुत्र रायसाहब ला० प्रद्युम्नकुमारजीने अपने जिनमन्दिरजीकी श्री जयधवलाजीकी उस प्रति से मिलान करने देनेकी उदारता दिखलाई है जो उत्तर भारतकी आद्य प्रति है। अतः मैं लाला सा० का आभारी हूँ। जैन सिद्धान्त भवन आराके पुस्तकाध्यक्ष पं० नेमिचन्द जी ज्योतिषाचार्यके सौहार्दसे भवनसे सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्रतियाँ तथा अन्य आवश्यक पुस्तकें प्राप्त होती रहती हैं। अत: मैं उनका भी आभारी हूँ। हिन्दू विश्वविद्यालय प्रेस के मैनेजर वा० रामकृष्ण दासको तथा उनके कर्मचारियोंको भी मैं धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिनके प्रयत्नसे ही यह ग्रन्थ अपने पूर्व रूपमेंही छपकर प्रकाशित हो सका है। जयधवला कार्यालय) भदैनी, काशी कैलाशचन्द्र शास्त्री श्रावण कृष्णा १ मंत्री साहित्य विभाग बी०नि००२४७४) मापसमागम जयघवला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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