SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] भुजगारविहवीए कालो १४२४. क्रुदो ? अट्ठावीस-विहत्तिएण अणंताणुवंघिचउक्के विसंजोइदे अप्पदरस्स एगसमयकालुवलंभादो। एवं सम्मत्तसम्मामिच्छत्तुव्वेजिदपढमसमए मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्त-सम्मत्ताणि खविदपढमसमए खवगसेढीए खविदपपडीणं पढमसमए च अप्पदरस्स एगसमओ जहण्णओ परूवेयव्यो । * उकस्सेण वे समया। ६४२५ कुदो ? णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चडिदम्मि सवेदयदुचरिमसमए इत्थिवेदे परसरुवेण संकामिदे तेरससंतकम्मादो बारससंतकम्ममुवणमिय से काले णqसयवेदे उदयहिदं गालिय बारससंतकम्मादो एक्कारससंतकम्ममुनगयम्मिणिरंतरमप्पदरस्स बेसमयउवलंभादो। * अवढिदसंतकम्मविहत्तियाणं तिणि भंगा। $ ४२६. तं जहा, केसि पि अणादिओ अपज्जवसिदो, अभव्वेसु अभव्बसमाणभब्वेसु च णिश्चणिगोदभावमुवगएसु अवहाणं मोत्तूण भुजगारअप्पदराणमभावादो । $ १२४. शंका-अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवका जघन्यकाल एक समय कैसे है? समाधान-जो अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाला जीव अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करता है उसके अल्पतरका एक समय मात्र काल देखा जाता है। इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर चुकनेपर पहले समयमें, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षय कर चुकनेपर पहले समयमें तथा क्षपक श्रेणीमें क्षयको प्राप्त हुई प्रकृतियोंके क्षय हो चुकनेपर पहले समयमें अल्पतरके एक समयप्रमाण जघन्य कालका कथन करना चाहिये। . * अल्पतर विभक्तिस्थानवाले जीवका उत्कृष्टकाल दो समय है। ४२५. शंका-अल्पतर विभक्तिस्थानवालेका उत्कृष्टकाल दो समय कैसे है ? समाधान-जब कोई जीव नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़कर और और सवेद भागके द्विचरम समयमें खीवेदको परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त करके तेरह प्रकतियोंकी सत्तासे बारह प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त होता है और उसके अनन्तर समयमें ही नपुंसकवेदकी उदयस्थितिको गलाकर बारह प्रकृतियोंकी सत्तासे ग्यारह प्रकृतियोंकी सत्ताको प्राप्त होता है तब उसके अल्पतरका निरन्तर दो समय प्रमाण काल देखा जाता है। * अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंके अवस्थित विभक्तिस्थानोंके तीन मंग होते हैं। ६४२६.वे इसप्रकार हैं-किन्हीं जीवोंके अवस्थित विभक्तिस्थान अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि जो अभव्य हैं या अभव्योंके समान नित्यनिगोदको प्राप्त हुए भव्य हैं, उनके अपस्थित स्थानके सिवाय भुजगार और अल्पतर स्थान नहीं पाये जाते हैं। किन्हीं जीवोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy