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________________ २७४ जयधवलासहिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ वावीस एकवीसवि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुडुतं । तेरस० बारस आदि काढूण जान चदुविहत्तिओ ति ओघभंगो | एवं माण०; णवरि अस्थि तिन्हं विहत्तिओ । एवं माय ० ; वरि अस्थि दोण्हं विहत्तिओ । एवं लोभ०; णवरि अत्थि एकिस्से बिहसिओ | माण- माया -लोभकसाथीसु चदुण्हं तिण्हं दोण्हं विह० जहण्णा दो आवलियाओ दुसमणाओ । अकसाईसु चउवीस एकवीसविह० केव० ? जहण्ण० एग०समओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सुहुम० - जहाक्खाद० वत्तव्वं । णवरि, सुहुमसांपisro एकिस्से विहत्तिओ केव० ? जहण्णुक्क० अंतोमु० । I अन्तर्मुहूर्त है । तेरह और बारहसे लेकर चार प्रकृतिकस्थान तकका काल ओघके समान है । क्रोधकषायके समान मानकषायमें भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषाय में तीनप्रकृतिक स्थान भी है । इसीप्रकार मायाकषाय में भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि माया कषाय में दोप्रकृतिक स्थान भी है । इसीप्रकार लोभकषायमें भी समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायमें एक प्रकृतिक स्थान भी है । मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें क्रमसे चार, तीन और दो प्रकृतिक स्थानका जघन्य काल दो समयकम दो आवलीप्रमाण है । कषाय रहित जीवों में चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक स्थानका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार सूक्ष्म सांपराय संयत और यथाख्यात संयतोंके कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसांपरायिक संयतके एक प्रकृतिक स्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - क्रोधादि कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें २८, २७, २६, २४, २३, २२ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । किन्तु जिस कषायके उदयसे जीव. क्षपकश्रेणी चढ़ता है उसके अपनी अपनी कृष्टि वेदनके काल तक उसीका उदय बना रहताहै, अतः क्रोधमें चार विभक्तिस्थान तकका काल, मानमें तीन विभक्तिस्थान तकका काल, मायामें दो विभक्तिस्थान तकका काल और लोभमें एक विभक्तिस्थान तकका काल ओघके. समान बन जाता है । किन्तु जो जीव क्रोध के उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके मानकषाय में चार विभक्तिस्थानका जघन्य काल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । जो मानके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके मायाकषाय में तीन विभक्ति - स्थानका जघन्य काल दो समय कम दो श्रावलिप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जो मायाके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ता है उसके लोभकषायमें दो विभक्तिस्थानका जघन्यकाल दो समय कम दो आवलिप्रमाण प्राप्त होता है । अकषायी सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यात संयत जीवोंमें २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय उपशमश्रेणी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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