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________________ गा० २२] vaisgranate कालो २७५ १३०४. णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणि० अट्ठावीसवि० केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो● असंखे० भागो । सत्तावीस - छव्वीसविह० ओघभंगो । विभंग० अट्ठावीससत्तावीसविह ० के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखेज्जदिभागो । छब्वीसवि० के० ? जह० एगसमओ उक्क० तेत्तीससागरोमाणि देसूणाणि । कषाय आदि होनेके एक समय बाद मरणकी अपेक्षासे कहा है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त उक्त विभक्तिस्थानोंके साथ इन अकषायी आदिके उपशमश्रेणीमें इतने काल तक रहने की अपेक्षा से कहा है । किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए सूक्ष्मसांपरायिक जीवके एक विभक्तिस्थान ही होता है अतः सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये । ९३०४. ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल ओघके समान है । विभंगज्ञानियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । छब्बीस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल देशोन तेतीस सागर है । विशेषार्थ - मिध्यात्व गुणस्थान में रहनेका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । यद्यपि सासादनका जघन्यकाल एक समय है, पर ऐसा जीव नियमसे मिध्यात्वमें ही जाता है और मतिअज्ञान तथा श्रुताज्ञान इन दोनों गुणस्थानोंमें ही पाये जाते हैं । इस लिये इन दोनों अज्ञानियोंके २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलनाके उत्कृष्टकालकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि जब तक कोई एक मत्यज्ञानी या श्रुताज्ञानी जीव सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करता रहता है तब तक उसके २८ विभक्तिस्थान बना रहता है । तथा इनके २७ और २६ विभक्तिस्थानका काल ओघके समान घटित कर लेना चाहिये । सुगम होनेसे नहीं लिखा है । जो अवधिज्ञानी २४ विभक्तिस्थानवाला जीव मिध्यात्वमें आकर और एक समय रह कर मर जाता है उसके विभंगज्ञानके रहते हुए २८ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो सम्यक्प्रकृतिकी उद्वेलना करनेवाला विभंगज्ञानी उद्वेलना करने के एक समय पश्चात् उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके २७ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा इनके २८ और २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकालं पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उद्वेलनाकी अपेक्षा से कहा है। जो विभगज्ञानी जीव सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेके पश्चात् एक समय तक २६ विभक्तिस्थानके साथ रह कर पश्चात् उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है उसके २६ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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