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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे पयडिविहती २ ३०५. आभिणि० - सुद० - ओहि० अट्ठावीस - चउवीसविह० के० ? जह० अंतोसु०, उक्क छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । णवरि, चउवीसविह० सादिरेयाणि । सेस० ओषभंगो । एवमोहिदंस० सम्माइडि० वत्तव्वं । मणपजव० अट्ठावीसविह० ० ? प्राप्त होता है । तथा अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता । अतः इतने कालसे कम तेतीस सागर काल तक जो नारकी २६ विभक्तिस्थानके साथ मिथ्यादृष्टि बना रहता है उसके २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । १३०५. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक स्थानका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन छयासठ सागर है । इतनी विशेषता है कि चौबीस प्रकृतिकस्थानका काल साधिक छयासठ सागर है । शेष स्थान ओघ के समान हैं । इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों के भी कहना चाहिये । २७६ विशेषार्थ - जो मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व या वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके और अन्तर्मुहूर्त काल तक उनके साथ रह कर अनन्तर सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानके रहते हुए २८ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा जो मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके और २४ विभक्तिस्थानके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर सम्यक्त्वसे च्युत हो जाता है उसके २४ विभक्तिस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल छयासठ सागर प्रमाण है । अब यदि इसमें उपशमसम्यक्त्वका काल जोड़ दिया जाये और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना होनेके अनन्तरका मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपणाकाल घटा दिया जाय तो उक्त काल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण रह जाता है, जो २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल ठहरता है, अतः उक्त तीन ज्ञानोंमें २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण कहा है। तथा जो उपशमसम्यक्त्वके कालमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके वेदकसम्यग्दृष्टि होता है और अपने उत्कृष्ट काल तक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहते हुए अन्तमें मिध्यात्वकी क्षपणा करता है उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनासे लेकर मिध्यात्वकी क्षपणा तकका काल छ्यासठ सागरसे अधिक प्राप्त होता है और यही २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल है । अतः उक्त तीन ज्ञानों में २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है । इन तीन ज्ञानोंमें शेष २३ आदि विभक्तिस्थानोंका काल ओघके समान जानना चाहिये, क्योंकि उक्त विभक्तिस्थान सम्यग्दृष्टि जीवके ही होते हैं और वहाँ इन तीनों ज्ञानोंका पाया जाना सम्भव ही है। अवधि दर्शनी और सम्यग्दृष्टि भी विभक्तिस्थानोंके काल मतिज्ञानी आदिके समान जान लेना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानी जीवों में अट्ठाईस प्रकृतिकस्थानका काल कितना है ? जघन्य काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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