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________________ गा० २२) पयडिहाणविहत्तीए कालो २७७ जहण्ण. अंतोमुहुसं, उक्क० पुवकोडी देसूणा। एवं चउवीसविह० वत्तव्वं । तेवीसबावीस-तेरसादि जाव एकिस्से विहत्तिओ त्ति ओघभंगो । णवरि बारसविह० एगसमओ णस्थि । एकवीस विह. केव० ? जह. अंतोमुहुत्तं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजद० । णवरि बारस० जह० एगसमओ । एवं सामाइयछेदो०, णवरि इगिवीसचउवीसविह० जह० एगसमओ। परिहार० अहावीस-चउवीस-तेवीस-बावीस-एकवीसविह० मणपञवभंगो। एवं संजदासंजद । असंजद० अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस. अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिप्रमाण है । इसीप्रकार चौबीस प्रकृतिकस्थानके कालका कथन करना चाहिये। तेईस, बाईस, और तेरहसे लेकर एक प्रकृतिकस्थान तकका काल ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय नहीं है । इक्कीस प्रकृतिकस्थानका कालं कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। इसीप्रकार संयतोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि संयतोंके बारह प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है। इसी प्रकार सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन दोनों संयतोंके इक्कीस और चौबीस प्रकृतिकस्थानका जघन्य काल एक समय है । परिहारविशुद्धि संयतोंमें अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका काल मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। इसीप्रकार संयतासंयतोंके समझना चाहिये । विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञान छद्मस्थ संयतके होता है अतः छद्मस्थ संयतका जो जघन्य और उत्कृष्ट काल है वही मन:पर्ययज्ञानमें २८ और २४ विभक्तिस्थानका जघन्य और स्कटकाल जानना चाहिये जो ऊपर बतलाया ही है। तथा २१ विभक्तिस्थानके उत्कृष्ट काल और १२ विभक्तिस्थानके कालको छोड़ कर शेष २३ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनःपर्ययज्ञानमें भी ओपके समान बन जाता है। किन्तु २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण प्राप्त होता है। यहां कुछ कमसे आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त काल लिया गया है। तथा बारह विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि मन:पर्ययज्ञान पुरुषवेदी जीवके होता है और पुरुषवेदमें १२ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय नहीं बनता है। मनःपर्ययज्ञानके समान संयतोंके भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय भी बन जाता है, क्योंकि संयतोंमें नपुंसकवेदवाले जीवोंका भी समावेश है। संयतोंके समान सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंके भी जानना चाहिये । किन्तु इनके २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर और एक समय तक सामायिक और छेदोपस्थापना संयत रह कर मर जाते हैं उनके २१ और २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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