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________________ गा० २२ ] . पडद्वाणविहत्तीए कालो ९३०३. कसायाणुवादेण कोधक० अट्टावीस- सत्तावीस-छब्बीस-चडवीस-तेवीसकाल तक उस पर्याय में बना रहता है उसके २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटि बर्षप्रमाण प्राप्त होता है। जिस पुरुषवेदी २८ विभक्तिस्थान वाले सम्यग्दृष्टि जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके २४ विभक्तिस्थानको प्राप्त किया और एक अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् मिध्यात्वको प्राप्त कर लिया उस पुरुषवेदी जीवके २४ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय जिसप्रकार स्त्रीवेदमें नहीं प्राप्त होता है उसी प्रकार पुरुषवेद में भी नहीं प्राप्त होता है । जो पुरुषवेदी जीव २१ विभक्तिस्थानको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अपगतवेदी होजाता है उसके २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । २२ विभक्तिस्थानके कालमें एक समय शेष रहते हुए जो मनुष्य, तिर्यंच या देवगति में उत्पन्न हुआ है उसके पुरुष वेदके साथ २२ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा जो जीव पुरुषवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है, उसके छह नोकषायोंकी क्षपणा अपगतवेदी होनेके उपान्त्य समयमें ही होती है अतः पुरुषवेद में पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्राप्त होता है । वेद में २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जिसप्रकार साधिक पचपन पल्य घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार नपुंसकवेद में २८ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक ३३ सागर घटित कर लेना चाहिये । तथा २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय भी स्त्रीवेद के समान घटित कर लेना चाहिये । तथा जो नपुंसकवेदके उदय के साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके नपुंसकवेदके क्षय होनेके उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदका क्षय होजाता है इसलिए इसके बारह विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है । जो २४ और २१ विभक्तिस्थानवाला जीव एक समय तक अपगतवेदी होकर और दूसरे समय में मरकर देवगतिको प्राप्त होजाता है उस अपगतवेदी जीवके २४ और २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा २४ या २१ विभक्तिस्थानवाला जो जीव उपशमश्रेणीपर चढ़ा और नौवें गुणस्थान में अपगतवेदी हो गया । पुनः उतरते समय नौवें गुणस्थान में सवेदी होगया उसके २४ या २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । अपगतवेद में शेष ग्यारह आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है यह स्पष्ट ही है । किन्तु पांच विभक्तिस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल दो समय कम दो आवली प्रमाण है । अतः अपगतवेदीके इसका काल उक्तप्रमाण जानना चाहिये । ऊपर जिस वेद में जिस विभक्ति स्थानके कालका ज्ञान सुगम समझा उसका खुलासा नहीं किया है । ९ ३०३. कषायमार्गणा अनुवादसे क्रोध कषायमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, और इक्कीस प्रकृतिकस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only २७३ www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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