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________________ प्रस्तावना इस संस्करणमें मुद्रित कसायपाहुड और उसकी चूर्णिसूत्र रूप वृत्ति तथा उन दोनोंकी टीका जयधषलाके सम्बन्धमें तथा उनके रचयिताओंके सम्बन्धमें प्रथम भागकी प्रस्तावनामें विस्तारसे विचार किया गया है । अत: यहां केवल इस भागके विषयका और उसमें आई हुई कुछ उल्लेखनीय बातोंका परिचय दिया जाता है। सबसे प्रथम उल्लेखनीय बातोंका परिचय कराया जाता है। १ मतभेदोंका खुलासा १. इस भागके प्रारम्भमें ही कसायपाहुड़की बाईसवीं गाथा आती है। प्रथम भागकी प्रस्तावना (पृ० १७ आदि) में यह बतलाया है कि चूर्णिसूत्रकारने जो अधिकार निर्धारित किये हैं वे कसायपाहुड़में निर्दिष्ट अधिकारोंसे कुछ भिन्न हैं । सो इस बाईसवीं गाथाका व्याख्यान करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने गुण धराचार्यके अभिप्रायानुसार अधिकार बतलाये हैं । और आगे (पृ० १७) में आचार्य यतिवृषभने उक्त • गाथाका व्याख्यान चूर्णिसूत्रोंके द्वारा करते हुए अपने माने हुए अर्थाधिकारोंको दिखलाया है। इसीसे बाईसवीं गाथा इस भागमें दो बार आई है । यतिवृषभाचार्यने उस गाथासे ६ अर्थाधिकार सूचित किये हैं जब कि गुणधराचार्यके अभिप्रायानुसार उससे दो ही अर्थाधिकार सूचित होते हैं; क्योंकि गुणधराचार्यने प्रकृति विभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिको मिलाकर एक अर्थाधिकार लिया है और प्रदेशविभक्ति झीणाझीण और स्थित्यन्तिकको मिलाकर दूसरा अधिकार लिया है। जब कि आचार्य यतिवृषभने इन छहोंको अलग-अलग अधिकार माना है। इसीसे श्री वीरसेन स्वामीने लिखा है कि अपने माने हुए अधिकारों के अनुसार चूर्णिसूत्रोंका कथन करने पर भी आचार्य यतिवृषभ गुणधराचार्यके प्रतिकूल नहीं है; क्योंकि उन्होंने दो अधिकारोंको ही ६ अधिकारोंमें विस्तृत कर दिया है। अतः उन्होंने उन्हीं विषयोंका कथन किया है जिनका समावेश उक्त दो अधिकारोंमें गुणधराचार्यने किया था। २. जैसे गुणधराचार्य और यतिवृषभाचार्यके अभिप्रायानुसार कसायपाहुडके अधिकारों में भेद है, वैसे ही यतिवृषभाचार्य और उच्चारणाचार्यमें भी अवान्तर अधिकारोंको लेकर भेद है। उच्चारणाचार्यने मूल प्रकृतिविभक्तिके सत्रह अधिकार कहे हैं जब कि यतिवृषभाचार्यने आठ ही अधिकार कहे हैं। इसीतरह उच्चारणाचार्यने एकैक उत्तर प्रकृतिविभक्तिके २४ अधिकार बतलाये हैं जब कि यतिवृषभाचार्यने ११ ही अधिकार बतलाये हैं । किन्तु इसमें भी परस्परमें प्रतिकूलता नहीं है; क्योंकि आचार्य यतिवृषभने संक्षेपसे कथन किया है जबकि उच्चारणाचार्यने विस्तारसे कथन किया है। अतः आचार्य यतिवृषभने अनेक अनुयोग द्वारोंका एकमें ही संग्रह कर लिया है और उच्चारणाचार्यने उन्हें अलग-अलग कहा है। २ चूर्णिसूत्रोंकी प्राचीनता , पृ० २१० पर एक चूर्णिसूत्र आया है-'एक्किस्से विहचिओ को होदि१' अर्थात् एक प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जय धवलामें इस पर प्रश्न किया है कि यह सूत्र क्यों कहा गया ? दिया है कि शास्त्रकी प्रामाणिकता बतलानेके लिये। फिर प्रश्न किया है कि ऐसा पूछनेसे प्रामाणिकता कैसे सिद्ध होती है ? तो वीरसेन स्वामीने उसका यह उत्तर दिया है कि यह भगवान् महावीरसे गौतमस्वामीने प्रश्न किया था। उसका यहां निर्देश करनेसे चूर्णिसूत्रोंकी प्रामाणिकताका ज्ञान होता है तथा इससे आचार्य यतिवृषभने यह भी सूचित किया है कि यह उनकी अपनी उपज नहीं है किन्तु गौतम स्वामीने भगवान् महावीरसे जो प्रश्न किये थे और उन्हें उनका जो उत्तर प्राप्त हुआ था उसे ही उन्होंने निबद्ध किया है। इससे प्रतीत होता है कि चूर्णि सूत्रोंका आधार अति प्राचीन है और भगवान् महावीरकी वाणीसे उनका निकट सम्बन्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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