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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ वत्तव्वं । णवरि, आभिणि-सुद०-ओहिणाणि-ओहिदंसणीसु सम्म०-सम्मामि मिच्छत्तभंगो। सुक्कलेस्सि० दंसणतिय-अणंताणु० विह० संखेजा भागा। अवि० सखेजदिभागो । मणुसपञ्ज०-मणुसिणीणमेवं चेव। णवरि संखेचं कायव्वं । एवं मणपजव०संजद०-सामाइयच्छेदो० वत्तव्वं । णवरि, सामाइयच्छेदो० लोभ० भागाभागो णत्यि एगपदत्तादो । आणद-पाणद० जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० विह० सव्वजी० केव० ? संखेज्जा भागा। अविह० सव्वजी० केव० ? संखेजदिभागो । सेसाणं णत्थि भागाभागो। एवमाहार०-आहारमिस्स-परिहार० वत्तव्वं । ६१६४. इंदियाणुवादेण एइंदिय० सम्मत्त-सम्मामि० ओघभंगो। सेसाणं णत्थि भागाभागो । एवं बादरसुहुम-एइंदिय०-पज्ज०अपज०-वणप्फदि०-णिगोद०बादरहै कि मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग मिथ्यात्वके समान है। तथा शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तीन दर्शनमोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव सभी शुक्ललेश्यावाले जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । और अविभक्तिवाले जीव सभी शुक्ललेश्यावाले जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में इसीप्रकार भागाभाग है। इतनी विशेषता है कि पूर्व में जहां जहां असंख्यात कहा है वहां वहां यहां संख्यात कर लेना चाहिये। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके लोभकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है क्योंकि वहां लोभ नियमसे है। आनत और प्राणत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक प्रत्येक स्थानमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव उक्त स्थानोंके सभी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले जीव उक्त स्थानोंके सभी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । यहां शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार अहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।। ६१६४. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियों में सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग ओघके समान है। यहां शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोदियाजीव, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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