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________________ __ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ उत्तसमुच्चए चेय पउत्तीदो । 'मणुस्सो' त्ति वुत्ते पुरिस-णqसयवेदविसेसणोवलक्खियमणुस्साणं गहणमण्णहा तत्थ एक्किस्से विहत्तीए अभावप्पसंगादो। 'खबओ ति णिद्देसो उक्सामयपडिसेहफलो । कुदो? तत्थ एकस्स वि कम्मस्स खवणाभावेण सयलपयडीणं घहकयाहलजलवि(चि)-क्खल्लो व्व उवसंतभावेण अवहाणादो। एवं दोण्हं तिण्हं चउण्हं पंचण्हं एक्कारसण्हं वारसण्हं तेरसण्हं विहत्तिओ। ६२३६. जहा एकिस्से विहत्तीए सामित्तं वुत्तं तहा एदेसि हाणाणं वत्सम्बं, मणुस्सक्खवगं मोत्तूण अण्णत्थ खवणपरिणामाभावादो। तं कुदोणव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ते परिणामा मणुस्सेसु व अण्णत्थ किण्ण होंति ? साहावियादो । णवरि, पंचण्हं विहत्ती मणुस्सेसु चेव, ण मणुस्सिणीसु; तत्थ सत्तणोकसायाणमक्कमेण खवणुवलंभादो) *एक्कावीसाए विहत्तिओ को होदि ? खीणदंसणमोहणिजो। समाधान-नहीं, क्योंकि उक्त अर्थके समुच्चय करनेमें ही दोनों 'वा' शब्दोंकी प्रवृत्ति होती है, अतः प्रथम 'वा' शब्दके द्वारा अन्य गतियोंका समुच्चय नहीं किया जा सकता है। चूर्णिसूत्रमें 'मणुस्सो' ऐसा कहनेपर पुरुषवेद और नपुंसकवेदसे युक्त मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा नपुंसकवेदी मनुष्योंमें एक प्रकृतिस्थान विभक्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। चूर्णिसूत्रमें 'क्षपक' पदसे उपशामकोंका निषेध किया है, क्योंकि उपशामकोंके एक भी कर्मका क्षय न होकर जिसप्रकार जलमें निर्मलीफलको घिस कर डालने से उसका कीचड़ उपशान्त होजाता है उसी प्रकार समस्त कर्मप्रकृतियां उपशान्तरूपसे अवस्थित रहती हैं। *इसीप्रकार दो, तीन, चार, पांच, ग्यारह, बारह और तेरह प्रकृतिरूप स्थानोंके खामी नियमसे मनुष्य और मनुष्यनी होते हैं। ६२३६. जिसप्रकार एक विभक्तिका स्वामी कहा उसीप्रकार इन स्थानोंका स्वामी कहना चाहिये, क्योंकि मनुष्य ही क्षपक होता है। उसे छोड़ कर अन्य देव नारक आदि जीवोंमें क्षपणाके योग्य परिणाम नहीं होते ।। शंका-अन्य गतियोंमें क्षपणारूप परिणाम नहीं होते यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। शंका-वे परिणाम मनुष्योंके समान अन्यत्र क्यों नहीं होते ? समाधान-ऐसा स्वभाव है। यहां इतनी विशेषता है कि पांच प्रकृतिरूप स्थान मनुष्यों में ही पाया जाता है मनुध्वनियोंमें नहीं, क्योंकि मनुष्यनियोंके सात नोकषायोंका एक साथ क्षय होता है। इक्कीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानका खामी कौन होता है ? जिसने दर्शनमोहनीयकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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