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________________ गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए सामित्तणिदेसो - २४०. दसणमोहणीयक्खवणा वि चारित्तमोहणीयक्खवणं व मणुस्सेसु चेव होदि; 'णियमा मणुस्सगदीए' ति वयणादो । तम्हा णियमा मणुस्सोवा मणुस्सिणी वा खवओ ति एत्थ वि सामित्तंवत्तव्वं ? ण, खीणदंसणमोहणीयं चउग्गईसु उप्पजमाणं पेक्खिद्ण रईओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो खीणदंसणमोहणिजो एकवीसपयडिहाणस्स सामी होदि ति तहा वयणादो। खविय चउग्गइसुप्पण्णाणं पुव्वुचहाणाणि चउगईसु किण्ण लभंति ? ण, चारितमोहक्खवयाणं णिब्बीजीकरसंतकम्माणं सेसगईसु उप्पत्तीए अमावादो। *बावीसाए विहत्तीओ को होदि ? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे। ६२४१.एत्थ वि 'मणुस्सों ति वुत्ते पुरिस-णqसयवेदजीवाणं गहणं; अण्णहा णqसयक्षय कर दिया है ऐसा जीव इक्कीस प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है। २४०. शका-जिसप्रकार चरित्रमोहनीयका क्षय मनुष्योंके ही होता है, उसीप्रकार' दर्शनमोहनीयका क्षय भी मनुष्योंके ही होता है, क्योंकि 'णियमा मणुस्सगदीए' अर्थात् दर्शनमोहनीयका क्षय नियमसे मनुष्यगतिमें होता है ऐसा आगमका वचन है, अतएव इस सूत्रमें भी स्वामित्वको बतलाते हुए 'णियमा मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा खवओ' ऐसा कहना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिनके दर्शनमोहनीयका क्षय होगया है ऐसे जीव चारों गतियों में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, अतः जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय कर दिया है ऐसा नारकी, तिसंच, मनुष्य और देव इक्कीस प्रकृतिकस्थानका स्वामी होता है इसलिये सूत्रमें 'खीणदसण मोहणिज्जो' ऐसा सामान्य वचन दिया है। ___ शंका-चारित्रमोहनीयका क्षय करके चारों गतियोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके पूर्वोक्त एक, दो आदि प्रकृतिकस्थान क्यों नहीं पाये जाते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि चारित्र मोहनीयका क्षय करनेवाले जीव सत्तामें स्थित . कर्मोको निर्षीज कर देते हैं अतः उनकी शेष गतियों में उत्पत्ति नहीं होती है। बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी कौन होता है ? जिस मनुष्य या मनुष्यनीके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होकर सम्यक्त्व शेष है वह बाईस प्रकृतिक स्थानका स्वामी होता है। ६२४१. यहां पर भी 'मणुस्सो' ऐसा कहने से पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये अन्यथा नपुंसकवेदी मनुष्योंके दर्शनमोहनीयके क्षयके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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