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________________ २१४ ... अबघवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ . वेदेसु दंसणमोहक्खवणाभावप्पसंगादो। मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेसु खविदेसु पुणो पच्छा सम्मत्त खतेण संखेजट्टिदिखडयसहस्साणि पादिय पच्छा चरिमे सम्मत्तहिदिखंडए पादिदे कदकरणिजो णाम होदि । तस्स वि वावीसाए हाणं; तत्थ सम्मत्तसंतसम्भावादो। सो वि कालं काऊण सव्वत्थ उप्पजदि । तेण 'मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा' त्ति वयणं ण घडदे । किंतु णेरइओ तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा बावीसविहत्तीए सामि त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो; इच्छिजमाणत्तादो । सुत्तविरुद्धं कथमभुवगंतुं सकिञ्जदे ? ण सुत्तविरुद्धो एसत्थो सुत्तेणेव उवइत्तादो। तं जहा-जदि मणुस्सा चेव बावीसविहत्तिया होंति तो एकिस्से विहत्तियस्स सामित्ते भण्णमाणे जहा णियमा मणुस्सो णियमा खवगो सामी होदि त्ति भणिदं तहा एत्थ वि भणेज ? ण च एवं; णियमसदाभावादो । तम्हा चदुसु वि गदीसु बावीसविहत्तिएण होदव्वं । जदि एवं, तो सुत्ते सेसगइग्गहणं किण्ण कयं ? ण, तालपलंबसुत्तं व देसामासियभावेण । शंका-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षीण हो जानेपर उसके अनन्तर सम्यक्प्रकृतिको क्षय करने वाला जीव जब सम्यक्प्रकृतिके संख्यात हजार स्थितिखण्डोंका घात करके उसके अन्तिम स्थितिखण्डका घात करता है तव उसकी कृतकृत्य वेदक संज्ञा होती है। इस जीवके भी बाईस प्रकृतिक स्थान पाया जाता है, क्योंकि यहां पर सम्यक्प्रकृतिकी सत्ता पाई जाती है। ऐसा जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होता है, इसलिये मनुष्य और मनुष्यनी बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी हैं, यह वचन घटित नहीं होता अतः नारकी, तिथंच, मनुष्य और देव बाईस प्रकृतिरूप स्थानके स्वामी हैं ऐसा कहना चाहिये ? समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि चारों गतिके जीव बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी हैं यह बात इष्ट ही है। शंका-चारों गतिके जीव बाईस प्रकृतिरूप स्थानके स्वामी हैं यह कथन उक्त सूत्रके विरुद्ध है। फिर इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? . समाधान-यह अर्थ सूत्रविरुद्ध नहीं है, क्योंकि सूत्रमें ही इसका उपदेश पाया जाता है। उसका खुलासा इस प्रकार है-यदि मनुष्य ही बाईस प्रकृतिक स्थानके स्वामी होते तो एक प्रकृतिक स्थानके स्वामित्वका कथन करते समय जिसप्रकार 'णियमा मणुस्सो णियमा खवगो सामी होदि' यह कहा है उसी प्रकार यहां भी कहते । परन्तु यहां ऐसा नहीं कहा क्योंकि उपर्युक्त सूत्रमें 'नियम' शब्द नहीं पाया जाता है, अतः चारों ही गतियों में बाईस प्रकृतिक स्थान होना चाहिये यह सिद्ध होता है। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें शेष गतियोंका ग्रहण क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकार 'तालपलंब' सूत्र देशामर्षकभावसे अशेष वनस्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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