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________________ __ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. पियडिविहत्ती २ एवं सेसवावीसकिहत्तियप्पहुडि जाव एमविहक्तिओ ति ताव पादेक तिमि गुणो कारणं बत्तन्वं । ६३३२. संपहि तिगुणिय अण्णोग्णगुणस्स कारणं कुच्चदे। तं जहा-सिया एदे, वात्रीसविहसिओ च, सिया एदे च वावीसविहत्तिया च । एवं वाकीसविहत्यिस्स एगसंजोगेण एगबहुवयणाणि अस्सिदण दो भंगा २। पुणो वावीस-तेवीसविहतियाणं संजोगो वुच्चदे । तं जहा-सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वावीसविहत्तिओ च १। सिया एदे च तेवीसविहत्तिओ च वावीसविहत्तिया च २। सिया एदे च तेकीसविहसिया च वावीसविहत्तिया (ओ) च ३३ सिया एदे च तेवीसविहलिया च वावीसविहत्तिया च ४। एवं कावीसविहत्तियस्स दुसंजोगभंगा चत्तारि हवंति । पुणो एदेसु पुग्घुसेगसजोगभंगेसु पंक्खित्तेसु छब्भवति । ६३३३. पुणो एदेसिं करणकिरियाए आणयणं वुच्चदे । तं जहा-पुन्वुत्ततेवीसविह इसीप्रकार शेष बाईस विभक्तिस्थानसे लेकर एक विभक्तिस्थान तक प्रत्येक स्थानको तीनसे गुणा करनेका कारण कहना चाहिये ।। ६३३२. अब विरलित राशिके प्रत्येक एकको तिगुना करके परस्परमें गुणा करे यह कह आये हैं उसका कारण कहते हैं। वह इसप्रकार है कदाचित् ये २८ आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थामवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं। इसप्रकार एकवचन और बहुवचनका आश्रय लेकर बाईस विभक्तिस्थानके एकसंयोगी भङ्ग दो होते हैं। अब बाईस और तेईस विभक्तिस्थानोंके दोसंयोगी भङ्ग कहते हैं। वे इसप्रकार हैं- कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुव स्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है । यह पहला भङ्ग है । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव और बाईस विभक्तिस्थानयाले अनेक जीव होते हैं। यह दूसरा भंग है। कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाला एक जीव होता है। यह तीसरा भंग है । कदाचित् ये अट्ठाईस आदि ध्रुवस्थानवाले अनेक जीव, तेईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव और बाईस विभक्तिस्थानवाले अनेक जीव होते हैं । यह चौथा भङ्ग है। इस प्रकार बाईस विभक्तिस्थानके तेईस विभक्तिस्थानके संयोगसे द्विसंयोगी भंग चार होते हैं, इन चार भंगोंमें पहले कहे गये बाईस विभक्तिस्थानके एक संयोगी दो भङ्गोंके मिला देनेपर कुल भङ्ग छह होते हैं। ६३३३. अब ये छहों भङ्ग गणितकी विधिके अनुसार कैसे निकलते हैं यह बतलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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