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________________ . ३१२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहषी ३ - ६२६८. मणुस्सेसु अठ्ठावीस-सत्तावीस-छव्वीस-चउवीसविह० पंचिंदियतिरिक्खमंगो। . तेवीस-बावीस-तेरस-बारस-एक्कारस-पंच-चत्तारि-तिण्णि-दोण्णि-एगविहत्तियाणमोघमंगो। एकवीसविह० केब० ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि किंचूणपुवकोडितिभागेणब्भहियाणि । एवं मणुसपञ्ज० । णवरि, बावीसविह० जह.. एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं । एवं मणुस्सिणीसु । णवरि, बारस० जह.. अंतोमुहुत्तं । एक्कवीसविह० केव०. ? जह० अंतोमुहुत्तं । उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । विभक्तिस्थानोंके उत्कृष्टकालको छोड़ कर शेष सब कालविषयक कथन पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिथंचपर्याप्तकोंके भी घटित हो जाता है । किन्तु इन दोनों प्रकारके तिर्थचोंके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्यप्रमाण होता है। यहां पूर्वकोटि पृथक्त्वसे पंचेन्द्रियतिथंचोंके १५ पूर्वकोटियोंका और पंचेन्द्रियतिर्यचपर्याप्तकोंके ४७ पूर्वकोटियोंका ग्रहण करना चाहिये। तथा पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियोंके २८, २७, २६ और २४ विभक्तिस्थानोंका काल पंचेन्द्रिय तिथंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल कहते समय पूर्वकोटिपृथक्त्वसे १५ पूर्वकोटियोंका ही ग्रहण करना चाहिये ।" तात्पर्य यह है कि इनके २८ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल १५ पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होता है । पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानका एक समय प्रमाण जघन्यकाल उद्वेलनाकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिये। तथा अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा यहां उक्त विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्टकाल कहा है । इसी प्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिये। ६२६८. मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस और चौबीस विभक्तिस्थानोंके जघन्य और उत्कृष्टकालका कथन पंचेन्द्रियतिथचोंमें उक्त स्थानोंके कहे गये जघन्य और उत्कृष्टकालके समान है । तेईस, बाईस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक स्थानोंका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान है । इक्कीस विभक्तिस्थानका काल कितना है। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार मनुष्यपर्याप्तकोंके समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके बाईस विभक्तिस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार मनुष्यणिओंके समझना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके बारह विभक्तिस्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनके इकीस विभक्तिस्थानका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि है। . विशेषार्थ-मनुष्योंमें २८, २७, २६ और २४ विभक्तिस्थानोंका काल पंचेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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