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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ मणुस-देव०-भवणादि जाव सव्वदृ०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सब्बतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्बिय-वेउबियमिस्स-इत्थिल-पुरिस०-अवगद-विहंग-आभिणि:सुद०-ओहि०-मणपज्जव०- संजद०- सामाइयछेदो०- परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु० ओहिदसण०--तेउ०-पम्म०-सुक्क ०-सम्मादि०-खइय०-वेदय ० -सणि ति। ६५१७. इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादर०-बादरपज्जत्तापज्जत्त-सुहुम०-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त० अवहि० के० खेत्ते? सव्वलोगे। संखेज्जभागहाणि० के० खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । एवं चत्तारिकाय-बादरअपज्ज-सुहुम० पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि - सुद - अण्णाण - मिच्छादि० - सण्णि० - अणाहारि ति वत्तव्यं । बादरपुढवि० पज०-बादर-आउ. पज०-बादरतेउ०पज०-बादरवाउपज. पंचिंदिय-अपज्जत्तभंगो। णवरि बादरबाउ० पज० अवट्टि लोगस्स संखे०भागे । सव्ववणप्फदिकाइयाणमेइंदियभंगो। आहार-आहारमिस्स० अवहि. के. है। इसीप्रकार सभी नारकी, पंचेन्द्रियतिर्यश्चत्रिक, पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्त, सर्व मनुष्य, सामान्य देव, भवन वासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सर्व त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, विभंज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंका क्षेत्र संभव पदोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग है। ६५१७. इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त अवस्थितविभक्तिस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। संख्यात भागहानिवाले उक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागक्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर कायिक, तथा इन चारोंके बादरलब्ध्यपर्याप्त और सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त जीवोंका अपनेमें सम्भव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके क्षेत्रके समान होता है। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। समस्त वनम्पतिकायिक जीवोंका संभव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र एकेन्द्रियोंके क्षेत्रके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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