SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ traवलासहिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ८८. आभिणिबोहिय० - सुद० - ओहि० विहत्ति ० केव० खेत्तं० पोसिदं १ लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ चोद्दस भागा वा देसूणा । अविहत्ति • खेत्तभंगो। एवमोहिदंसणीणं वत्तव्यं । संजदासंजद० विहत्ति० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, छ चोइस भागा वा देखणा । तेउलेस्सा० सोहम्मभंगो । पम्मलेस्सा० सहस्सारभंगो । अपगतवेदियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीव ग्यारहवें गुणस्थान तक होते हैं जिनका वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श संभव पदकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका दोनों प्रकारका स्पर्श ओघके समान है, अतः ओघप्ररूपणा के समय जो खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नही । अकषायी आदि जीवोंका मोहनीयविभक्ति और मोहate अविभक्तिकी अपेक्षा वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्श अपगतवेदियों के समान है । पदोंकी अपेक्षा जो विशेषता हो उसे यथायोग्य जान लेना चाहिये । ه ف ८८. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ मार्गे प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनी जीवोंके स्पर्शन कहना चाहिये । विशेषार्थ - इनके केवलि समुद्घातको छोड़कर शेष नौ पद होते हैं । उनमें से मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंके मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्श नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण है । शेष सभी पदोंकी अपेक्षा वर्तमान और अतीतकालीन स्पर्शन तथा मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा वर्तमान कालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है । मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिकी अपेक्षा इसमें कोई विशेषता नहीं है । पर मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त जीवोंके एक स्वस्थानस्वस्थान पद ही होता है, शेष नहीं । संयतासंयत में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । विशेषार्थ - अतीतकाल में मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा संयतासंयतोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। क्योंकि, संयतासंयत तिर्यंच और मनुष्य जीव अच्युत कल्प तक मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाये जाते हैं । शेष सभी प्रकारका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । पीतलेश्या में सौधर्म के समान पद्मलेश्यामें सहस्रारके समान और शुकुलेश्या में संयतासंतोंके समान स्पर्शन है । तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके शुकुलेश्या में ओघके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy