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________________ गा० २२ । उत्तरपयडिविहत्तीए सरिणयासो १४१ सो मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० सिया विह० सिया अविह, एक्कारसक ०.८ णवणोक० णियमा वित्तिओ । एवमेकारसक० णवणोकसायाणं । एवं जहाक्खादसंजदाणं । १५०. आभिणि-सुद० - ओहि ० -मणपञ्जवणाणेसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अताणु ० - चउक्क० सिया विह० सिया अविह ० ; सेसाणं णियमा विहत्तिओ | सम्मत्तस्स जो विहत्तिओ सो मिच्छत्त सम्मामि० - अणताणु० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; बारसकसाय वणोकमाय० णियमा विहत्तिओ । सम्मामिच्छत्त ० जो विहत्तिओ सो मिच्छत - अनंताणु ० चउक्क० सिया विह० सिया अविह०; सम्मत्त बारसक० णवणोक० णियमा विहत्तिओ | अणंताणु० को ० जो विहत्तिओ सो सव्वपयडीणं णियमा विहत्तिओ । एवं तिहं कसायाणं । बारसक० णवणोकसाय० ओघभंगो । एवं संजद ० - सामाइयच्छेदो० ओहिदंस- सम्मादिहीणं वत्तब्बं । १५१. परिहार • संजदेसु मिच्छत्तस्स जो विहत्तिओ सो अनंताणु० सिया विह० वह मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकपायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायों की अपेक्षा जानना चाहिये । अकषायी जीवों के समान यथाख्यात संयतोंके भी जानना चाहिये | १५०. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, और मन:पर्ययज्ञानी जीवोंमें जो मिध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो सम्यग्मध्यात्वकी विभक्तिवाला है वह मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है । किन्तु वह सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी विभक्तिवाला नियमसे है । जो अनन्तानुबन्धी क्रोधकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाला है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिये । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा कथन ओघके समान है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । १५१. परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें जो मिथ्यात्व की विभक्तिवाला है वह अनन्तानुबन्धी agrat विभक्तिवाला है भी और नहीं भी है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिषाला नियमसे है । जो सम्यक्प्रकृतिकी विभक्तिवाला है वह मिथ्यात्व सम्यगूमिध्यात्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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