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________________ गा० २२ ] , विहत्तीए णिक्खेवो ___ * संठाणविहत्ती दुविहा संठाणदो च, संठाणवियप्पदो च । १५. तंस-चउरंस-वहादीणि संठाणाणि । तंस-चउरंस-वट्टाणं भेया संठाणवियप्पा। एवं दुविहा चेव संठाणविहत्ती होदि अण्णस्स असंभवादो । * संठाणदो वढें वदृस्स अविहत्ती। ६ १६. संठाणदो 'विहत्ती उच्चदि' त्ति पय संबंधो कायव्वो; अण्णहा अत्थावगमणाणुववत्तीदो। अण्णदव्यटियवर्ल्ड पेक्खिदूण वस्स अण्णदव्वष्टियस्स अविहत्ती अभेदो । पुधभूददव्व-खेत्त-काल-भावेसु वट्टमाणाणं कथमभेदो ? ण, दव्व-खेत्त कालाणमसंठाणाणं भेदेण संठाणाणं भेदविरोहादो । किं च, पडिहासभेएण पडिहासमाणस्स भेओ, ण च एत्थ सो उ बट्टदे, तम्हा अभेयो इच्छेयव्यो । दोण्हं वट्टाणं सरिसत्तं चेव उपलब्भइ णेयत्तमिदि णासंकणिज्जं; समाणेयत्ताणं भेदाभावादो। दव्वादिणा णिरुद्धाणं वट्टाणं समाणत्तं तेहि चेव अणिरुद्धाणमेयत्तमिदि सयललोयप्पसिद्धमेयं । तम्हा वट्टस्स वट्टेण अविहत्ति त्ति इच्छेयव्वं । * संस्थान और संस्थानविकल्पके भेदसे संस्थानविभक्ति दो प्रकारकी है। १५. त्रिकोण, चतुष्कोण और गोल आदिकको संस्थान कहते हैं । तथा त्रिकोण, ' चतुष्कोण और गोल संस्थानोंके भेदोंको संस्थानविकल्प कहते हैं। इसप्रकार संस्थानविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि, और कोई भेद संभव नहीं है। ___ * संस्थानकी अपेक्षा विभक्तिका कथन करते हैं-एक गोल द्रव्य दूसरे गोल द्रव्यके साथ अविभक्ति है। ६ १६. 'संठाणदो' इस पदके साथ 'विहत्ती उच्चदि' इतने पदका संबन्ध कर लेना चाहिये, क्योंकि उसके बिना अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। अन्य द्रव्यमें स्थित गोलाईका अन्य द्रव्यमें स्थित गोलाईके साथ अविभक्ति अर्थात् अभेद है। शंका-भिन्न द्रव्य, भिन्न क्षेत्र, भिन्न काल और भिन्न भावमें स्थित संस्थानोंका अभेद कैसे हो सकता है ? समाधान-क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र और काल असंस्थानरूप हैं इसलिये इनके भेदसे संस्थानोंका भेद माननेमें विरोध आता है। दूसरे, प्रतिभासके भेदसे प्रतिभासमान पदार्थमें भेद माना जाता है परन्तु वह यहां पाया नहीं जाता है, इसलिये अभेद स्वीकार करना चाहिये । यदि कोई ऐसी आशंका करे कि गोल दो द्रव्योंमें समानता ही पाई जाती है, एकत्व नहीं, सो उसका ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, समानता और एकतामें कोई भेद नहीं है। द्रव्यादिककी अपेक्षासे जब गोलाइयां द्रव्यादिगत विवक्षित होती हैं तब उनमें समानता मानी जाती है और जब उनमें द्रव्यादिकी विवक्षा नहीं रहती तो वे एक कहलाती हैं । इसप्रकार यह बात सकल लोकप्रसिद्ध है। इसलिये एक गोलाईकी दूसरी गोलाईके साथ अविभक्ति स्वीकार करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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