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________________ गा० २२ ] मूलपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो x A " x | " " " | एकेन्द्रिय, तेजकायिक । व वायुकायिक । बादर एकेन्द्रिय, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर तेज कायिक पर्याप्त एकेन्द्रिय सूक्ष्म, सूक्ष्म वायु, सूक्ष्म तेज व इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिवी, जल, वनस्पति " x " | " x x x | " | " ! और निगोद तथा इनके सूक्ष्म और पर्याप्त अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, बादर तेज, बादर वायु ये । तीनों अपर्याप्त, बादर पृथिवी, बादर जल, बादर वनस्पति, बादर निगोद और इनके पर्याप्त अपर्याप्त कोष्ठक नम्बर एक के चारों कषायवाले विहारवत्स्वस्थान, वैक्रियिक, तैजस और आहारक समुद्भातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि इन पांच पदोंमें रहनेवालोंका प्रमाण अनन्त है और वे सर्व लोकमें पाये जाते हैं। नम्बर दोके सामान्य तिथंच आदि जीव विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं। इसका कारण पहलेके समान जानना चाहिये। नम्बर तीनके जीव वैक्रियिक समुद्धातको छोड़कर शेष पांच पदोंसे सर्व लोकमें रहते हैं। इनमेंसे तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंका प्रमाण असंख्यात लोक है इसलिये एकेन्द्रियोंके समान इनके भी सर्व लोकमें पाये जानेमें कोई आपत्ति नहीं है। नम्बर चारके बादर एकेन्द्रिय आदि और नम्बर छहके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि जीव केवल मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पदकी अपेक्षा सर्व लोकमें पाये जाते हैं। क्योंकि, ये जीवराशियां बादर होनेसे सब जगह रह तो नहीं सकती हैं फिर भी ये जब सूक्ष्म जीवोंमें जाकर उत्पन्न होनेके पहले मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तब इनका वर्तमान क्षेत्र सर्व लोक पाया जाता है। तथा लोकके किसी भी भागसे सूक्ष्म जीव आकर जब इन बादरोंमें उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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